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Hindi

कविता : गुड़िया

By विजय (Vijay)

May 12, 2019

गुड़ियाएं मेरे हर राज़ की राज़दार थीकपड़े से बनी, मोटी आँखों वालीअनगढ़ अंगों वाली और हमेशा हँसने वालीजब से बड़ा हुआ, मैंने हर अपना दुख कह दिया इनसेअपनी हर खुशी बता दी, बांट ली।

माँ बाज़ार से नही खरीद पाती थी महँगे खिलौनेपुराने सफेद साये से बना देती थी गुड़िया मेरे लिए भी बहनों के साथ-साथ, मैं पुराने कपड़ों से लेकर उसके काली ऊन से बने बालों को और काजल से बने उसकी आखों को बहुत ध्यान से देखता था।जब भी सोचता था कि कोई गुड्डा क्यों नही बनता इतना सुंदर?बस यही दुःख मुझे सालता था हर बार नई गुड़िया के बनने परबहनें खिलाती मुझे अपने साथ बनाती मुझे गुड्डा और ब्याह देती अपनी-अपनी गुड़िया बारी-बारी से मेरे साथ।

मैं अपनी गुड़िया लिए सारे घर में घूमता…माँ हँसती, बहनें खुश होतीं और भाई छेड़ता मैं समझता कि सब बहुत प्यार करते हैं मुझे एक दिन मेरी गुड़िया छीन ले गया कोईमैं बिलखता रहा घर पर माँ समझातीदूसरी बना के देने का दिलासा देतीपर उदास ही रहता मैं।

एक दिन मैं खुद हो गया गुड़ियासजा करता काजल बिंदी और बुंदो के साथबहनें हँसती, माँ लाड़ करती पर भाई ने पीट दिया एक दिनकाट लिया मुझे गाल पर गुस्से में।मैं रो पड़ा

माँ मेरी छाती पर हाथ फेर कर देखती थी मुझे नहलाते हुएमैं स्कूल से लौट कर पहन लेता अगर कभी बहन की छोटी स्कर्ट तो भाई मुझे अपनी गोद में बिठा लेता थाप्यार से, मैं कह नही पाया पर…

अब वो सब कुछ कितना पीछे छूट जाता है..अब मेरा दुख बाँटे ऐसी कोई गुड़िया नही मेरी बीवी झल्लाती हैबच्चों परमुझ पर और मैं उदास हो जाता हूँअपनी गुड़िया को याद करकेजिसे वक़्त छीन कर ले गया।

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