समलैंगिकता… एक ऐसा शब्द जिससे दुनिया अनजान थी… सच कहूँ तो मैं खुद भी। इसे समझने के लिए बहुत धैर्य की ज़रूरत होती है।अगर बात करें भारत की तो यहाँ पर अधिकतर लोग जो इसकी सही समझ नहीं रखते हैं (या कहें कि रखना ही नहीं चाहते) इसे शारीरिक दृष्टि से ही देखते हैं। इसे ऐसे देखा जाता है कि जब दो समलैंगिक लोग आपस में सम्बन्ध रखते हैं तो उनका उद्देश्य शारीरिक वासनाओं को पूरा करना होता है।किन्तु ये सच नहीं है। एक समलैंगिक होने के नाते जो समझना चाहते हैं मैं उन्हें समझा भी सकता हूँ।
पहली बात तो ये कोई पाप या बीमारी नहीं होती है। ये बिल्कुल प्राकृतिक है। दूसरी बात इसमें किसी का कोई दोष नहीं होता न माँ-बाप का, न परवरिश या वातावरण का और न ही एक समलैंगिक व्यक्ति का। होता यूँ है कि सामान्य तौर पर जब हम किशोरावस्था में पहुँचते हैं तो हमारे शरीर में कुछ शारीरिक बदलाव होते हैं, और साथ ही साथ विपरीत लिंग के लोगों के प्रति एक सहज आकर्षण होता है, जो कि पूरी तरह से प्राकृतिक है। ठीक उसी प्रकार से समलैंगिक लोगों को उन्हीं के लिंग के लोगों के प्रति आकर्षण होता है, और वो भी पूरी तरह से प्राकृतिक है।
इसमें किसी का कोई दोष नहीं होता न माँ-बाप का, न परवरिश या वातावरण का और न ही एक समलैंगिक व्यक्ति का
लेकिन इसे सिर्फ शारीरिक आकर्षण तक सीमित रखना उचित नहीं होगा। इसके कुछ और भी पहलू हैं – जैसे ही कोई व्यक्ति हमें पसंद आता है, उसके साथ बातें करना, हँसना, आँखों में आँखें डालकर देखते रहना, आँखें चुराना, एक दूसरे को चिढ़ाना, तंग करना, हाथ पकड़ना अर्थात् किसी भी बहाने से उसको महसूस करना – ये सारी हरकतें अच्छी लगती हैं और दिल को खुश कर देने वाली होती हैं। यहीं से प्यार की शुरुआत होती है।
तो सार रूप में कहें तो एक समलैंगिक व्यक्ति बाकी लोगों की तरह ही प्यार करने का अधिकार रखता है। उसकी भी अपनी ख्वाहिशें, चाहत और आकर्षण होते हैं। उसके भी अपने डर होते है – अस्वीकार होने का डर, किसी को खोने का डर, शारीरिक शोषण होने का डर आदि आदि। समलैंगिकता शारीरिक नहीं बल्कि बिलकुल प्राकृतिक है।यह एक संवेदनशील विषय है जिसे समझने के लिए बहुत ही धैर्य की ज़रूरत होती है।
अंत में ये ही कहना चाहूँगा – आपके आसपास जो भी लोग हैं चाहे वो समलैंगिक हैं या नहीं, लेकिन उन्हें जरूरत है कि उन्हें पूरे धैर्य के साथ समझा जाये और अपनाया जाए।वर्तमान में ज़रूरत है संवेदनशील होने की ।
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