'तथाकथित से संवैधानिक तक' | तस्वीर: अमन अल्ताफ | सौजन्य: क्यूग्राफी |

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संपादकीय: ‘तथाकथित’ से ‘संवैधानिक’ तक: व्यक्तिगतता की जीत ने जगाई लैंगिकता अल्पसंख्यकों में आशा की किरण

By Sachin Jain

August 24, 2017

“निजिता या व्यक्तिगतता एक आतंरिक और मूलभूत अधिकार है”। भारतीय उच्चतम न्यायलय के ९ न्यायाधीशों के संविधान पीठ ने आज २४ अगस्त २०१७ को यह ऐतिहासिक फैसला दिया। संविधान के अनुच्छेद २१ के तहत हर भारतीय नागरिक का प्रदत्त जीवन और स्वातंत्र्य संरक्षित है। केवल कानून के द्वारा बनी प्रक्रिया एक नागरिक को इनसे वंचित कर सकती है। ‘राईट टू प्राइवसी’ इसी आर्टिकल २१ के तहत शामिल है, इस अभिकथन द्वारा कोर्ट ने अपने ही १९५४ और १९६१ के ८- और ६- न्यायाधीशों के खंडपीठों के ‘एम्.पी. शर्मा’ और ‘खड़क सिंह’ फैसलों को रद्द किया। उनमें फैसला यह हुआ था कि ‘व्यक्तिगतता’ को भारत में संवैधानिक संरक्षण नहीं है और वह एक ‘आश्वस्त’ (गैरंटी दिया गया) अधिकार नहीं है।

उसी प्रकार आज के निर्णय ने केंद्र सरकार के इस दृष्टिकोण को भी नकारा कि प्राईवसी केवल सामान्य विधि (कॉमन लॉ) के अंतर्गत हक है, संवैधानिक हक नहीं। आधार कार्डों के अनिवार्य बनाए जाने के सम्बन्ध में २०१२ में चेन्नई उच्च न्यायलय के रिटायर्ड जज के एस पुटस्वामी ने तब की यू.पी.ए. सरकार के बायोमेट्रिक डेटा लेने के बाद बनाए गए आधार कार्डों को लाने के निर्णय को चुनौती दी थी।

इस निर्णय में भारतीय समलैंगिक समुदाय के लिए, जो पिछले २० वर्षों से अपनी आज़ादी की लड़ाई लड़ रहा है, अनेक महत्त्वपूर्ण भाष्य हैं:

१. लैंगिक रुझान प्राईवसी की सारभूत विशेषता है, और प्राईवसी एक मौलिक अधिकार है।

२. लैंगिक रुझान पर आधारित किसी व्यक्ति के विरुद्ध किया गया भेदभाव उसकी गरिमा और आत्म-मूल्य के प्रति बेहद अपमानजनक है।

३. समानता का तक़ाज़ा है कि समाज में हर किसी के यौन अभिविन्यास को एक जैसा संरक्षण मिले।

४. प्राईवसी का अधिकार और लैंगिक रुझान का संरक्षण, संविधान के अनुच्छेद १४, १५ (धर्म, जाति, लिंग, प्रजाति अथवा जन्मस्थान पर आधारित भेदभाव का निषेध) और २१ (जीवन और वैयक्तिक स्वाधीनता का संरक्षण) द्वारा दिए गए मौलिक अधिकारों का मर्म हैं। अतः लैंगिक रुझान पर आधारित भेदभाव असंवैधानिक है।

५. उसी प्रकार, आज कोर्ट का कहना है कि उनके अनुसार ‘कौशल निर्णय’ (भारतीय दंड संहिता ३७७ का मामला) में उच्चतम न्यायलय का (दिसंबर २०१३ में) यह अभिकथन, कि (जुलाई २००९ में) “दिल्ली उच्च न्यायालय ने तथाकथित एल.जी.बी.टी. लोगों के अधिकारों के संरक्षण करने की उत्कंठा में अंतर्राष्ट्रीय पूर्व-उदाहरणों पर गलत तरीके से भरोसा किया” अरक्षणीय है। समलैंगिक, उभयालैंगिक और ट्रांसजेंडर लोगों के अधिकारों को ‘तथाकथित’ करार नहीं दिया जा सकता। क्योंकि ‘तथाकथित’ यह शब्द यह दो ग़लतफ़हमियाँ पैदा करता है, कि एल.जी.बी.टी. अधिकारोंके भेस में बेबाक स्वाधीनता को प्रोत्साहन दिया जा रहा है, और समलैंगिक समुदाय ने व्यक्तिगतता पर मपनी दावों का अनुचित विवेचन किया है। उनके अधिकार तथाकथित नहीं हैं, बल्कि सक्षम संवैधानिक सिद्धांतों पर आधारित हैं। प्रदत्त जीवन के अधिकारों में अन्तर्निहित हैं। प्राइवेसी और गरिमा में शामिल हैं। वे स्वाधीनता और स्वतंत्रता के मर्म का हिस्सा हैं। इसलिए लैंगिकता रुझान एक नागरिक के स्व-पहचान का अनिवार्य हिस्सा है। समान संरक्षण का मतलब है हर व्यक्ति की पहचान की बिना भेदभाव रक्षा करना।

इन भाष्यों के भारतीय एल.जी.बी.टी. समाज के लिए निम्न निहितार्थ हैं:

१. जैसे कि डॉक्टर डी.वाय. चंद्रचूड, आज के निर्णय के खंडपीठ के एक न्यायाधीश ने कहा, अगर प्राईवसी एक मूलभूत अधिकार है तो २०१३ का नाज़ जजमेंट भेद्य है। अगर वह एक ‘फंडामेंटल राईट’ है, तो सहमत वयस्कों के घरों में झाँककर सरकार द्वारा उनका अपराधीकरण किया जाना इस सन्दर्भ में एक विसंगति है।

२. उपचारात्मक याचिका पहले से ही उच्चतम न्यायलय में दर्ज है। अतः ५ न्यायाधीशों के संवैधानिक पीठ को स्थापित कर उसके ज़रिये पुनः समलैंगिकता के निरापराधिकरण के लिए मार्ग पक्का हो गया है। ३७७ की संवैधानिक अवैधता को अनुकूल कार्यवाही द्वारा पुनः साबित किया जा सकता है। भारत दुनिया का पहला अजीबोगरीब देश होगा जो लैंगिकता अल्पसंख्यकों का पहले अपराधीकरण, फिर निरपराधिकरण, तद्पश्चात पुनरपराधिकरण और बाल आखिर पुनः निरपराधिकरण करेगा!

३. समलैंगिक लोग भारत की १३४ करोड़ आबादी का स्वाभाविक और अंतर्भूत हिस्सा हैं। निजिता को सार्वभौमिक अधिकार करार देकर सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय समलैंगिकों को समाज की मुख्यधारा से अलग करने का इरादा रखने वालों के प्रयासों को निष्प्रय बना दिया है। समलैंगिकता अल्पसंख्यक समाज की रक्षा अब सरकार का कर्तव्य है।

४. सरकारों और न्यायालयों के बाहर की असली दुनिया: स्कूलों, घरों, अस्पतालों और धार्मिक स्थलों पर भी पिछले साढ़े चार सालों में समलैंगिकों पर लगाए गए कलंक को मिटाने की धीमी प्रक्रिया शुरू होगी। भेदभाव करने वाले शिक्षक, चिकित्सक, दफ्तरों में प्रबंधक, और घरवाले भी बेपरवाही से यह दावा नहीं कर सकते कि देश का सबसे उच्च न्यायलय उनके प्रतिगामी विचारों से सहमत है। नैतिकता की पुलिस बनकर जेंडर और सेकशूआलिटी की अभिव्यक्ति पर रोक लगाने वालों पर सैद्धांतिक तौर पर ही सही, लेकिन रोक जरूर लगेगी।

बहुसंख्यवाद की भी यह खासी अस्वीकृति है। बहुसंख्य समाज आनेवाले कल में भले ही किसी भी पूर्वग्रह का शिकार बने, अल्पसंख्यक समाज को अपने अधिकारों से वंचित नहीं कर सकता। यह लोकतंत्र का मूल तत्व २०१३ के शर्मनाक निर्णय से क्षतिग्रस्त हुआ।

५. यह तर्क, कि सिर्फ चंद (२०० के करीब) लोगों के अधिकारों का इतने दशकों में छीना जाना स्वीकार्य है, एक बेतुका तर्क है। २०१३ का निर्णय समलैंगिकों को एक गुट मानकर उनके ख़िलाफ़ यथाक्रम भेदभाव करने की अनुमति दे रहा था। इसके अलावा यह भी देखने में आया कि २०१३ दिसंबर के निर्णय के बाद ३७७ के अंतर्गत दर्ज केसों में बढौती हुई, और शोषण और भेदभाव की मात्रा में भी इजाफा हुआ। इसी को कोर्ट ने “चिलिंग इफेक्ट” (डरावने परिणाम) कहा है, जिसमें एक मनुष्य को समाज में हीन दर्जा दिया गया है और बिना गुनाह साबित हुए अपराधी की तरह उसके साथ बर्ताव किया जा रहा है।

आशा है कि उच्चतम न्यायलय जल्द ही उपचारात्मक याचिका की सुनवाई के लिए पांच न्यायाधीसों के खंडपीठ का जल्द ही गठन करेगा। समलैंगिक समुदाय के भीतर अब समलैंगिक एक दूसरे के साथ मानवी और आतंरिक तौर पर बिना सरकार की दखल-अंदाजी के रिश्ते बना पाएँगे। भारत का एल.इ.बी.टी. समाज अपने अधिकारों को पाने के लिए वर्षों से शांति और गरिमा के साथ रुका हुआ है। अब सवाल सिर्फ यह बचता है कि निजिता के रूप में हुए इस विकास के महत्त्वपूर्ण क़दम का अनुवर्तन निरपराधिकरण और एनी ठोस अधिकारों में कितनी तेज़ गति से होता है।