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“वापसी” एक शृंखलाबद्ध कहानी (भाग १/२)

By कपिल कुमार (Kapil Kumar)

June 04, 2017

एक सपना हर रात आता है। अँधेरा-सा कॉरिडोर है। कोने पर लिफ्ट है। गरदन झुकाये मैं चला जा रहा हूँ। आवाज़ आती है। “एक ही प्रेस करना, ज़ीरो नहीं।” कोई चेहरा नहीं। बस आवाज़। अरसा गुज़र चूका है, पर कुछ है जो मेरे ज़हन से उतरा नहीं है। सपनों ने काफी तबाही मचायी है मेरी ज़िंदगी में।

मेरी ज़िदगी ही एक सपना लगती है, उथल-पुथल से भरा गहरी नींद में देखा हुआ सपना। जिसमें आप जागना चाहते हैं। चिल्लाना चाहते हैं ज़ोर से। पर घुट कर रह जाते हैं। एक आवाज़ तक नहीं निकल पाती, ज़रा भी नहीं। और ये सपना टूटने का नाम नहीं ले रहा। जब मैं सकपकाकर जगा तो तीन बज रहे थे। बारिश अब भी हो रही थी, और कंधे में सरसराहट भी।

जब मैं पहले-पहल मुंबई आया था तो पहले ही मानसून में मैंने अपना कन्धा फ्रैक्चर करा लिया था। और उसके बाद आये किसी मानसून ने मुझे ये भूलने नहीं दिया। वो मेरी छोटे-सी ज़िंदगी के सबसे लम्बे दर्दनाक दिन थे। बारिश, कन्धा, पहली नौकरी, सेक्स, भीड़, वडापाव, मुंबई। सब उस वक़्त धड़ा-धड़ मचा रहे थे और किसी पर मेरा बस नहीं था। लोग कहते थे “सब” ठीक हो जायेगा। पर सब ठीक कभी नहीं होता। मेरा कन्धा तक कभी पूरी तरह ठीक नहीं हुआ।

करवटें कब तक बदलता? मैं बाहर बालकनी में आ गया। सुबह हो रही थी। हल्का-सा उजाला था, हल्का-सा अँधेरा। मुझे सालों हो गए जल्दी जगे। शायद ये मेरी वापसी की शुरुवात है। दूर उस पीली बिल्डिंग पर सूरज की पहली रौशनी गिर रही थी। यह पीली बिल्डिंग हमेशा यहीं थी पर हमेशा इससे आँखें फेरता रहा। लगता था कि वो ही खड़ा है उस खिड़की में। घबरा जाता था मैं। हर बार आँखों के कोनों से देखता था; हर रात उसके फ्लैट की लाइट जली रहती थी, पूरी-पूरी रात।

क्यों जगा है वो, क्या है जो उसे जगाये हुए है। उसको क्या दर्द है? भूल चुका होगा वो अब तक तो। फिर क्यों जल रहा है वो। क्यों जगा है वो? उसने बताया तो था कि उसकी पहली शादी की हर रत उसने आँखों में जाग कर बितायी थी। नींद नहीं, आँसुओं के साथ। शायद आदतें आसानी से नहीं बदलती। २ जुलाई २००९ … साल हो गए उससे मिले। खुश था मैं उससे मिलकर; हर चीज़ अलग थी। पहले कुछ भी इतना गहराई से महसूस नहीं किया था। उसने बस आँखे मूँद नहीं ली थी।

देखा था मुझे जी भर कर। आहें ही नहीं, बातें भी मेरे साथ बाँटी थी। उस दौर में मिले उन दर्जनो में से एकलौता है, जिसका नाम मुझे अब भी याद है। “मधेश”। बहुत अजीब नाम है। कभी सुना नहीं था। उसने बताया था कि इसका मतलब है भँवरा… या तितली… कुछ याद नहीं पड़ता। २ जुलाई २००९ … दिल्ली हाई कोर्ट का निर्णय आया था। हवाओं में ही कुछ अलग था। तुम महसूस कर सकते थे कि कुछ तो बदल गया था। लगता था अब सब कुछ बस में है। असंभव कुछ भी नहीं। लगता था जैसे मैं ही कटघरे से बाहर निकल चूका हूँ। हम सब जमा हुए थे वहाँ। लोग जिनको मैं जनता नहीं था, वे भी मेरी ख़ुशी में ख़ुश थे।

वहीँ देखा था उसे मैंने पहली बार। पहली नज़र में। कुछ नहीं लगा। बस लगा था कि अंकल बहुत जोश में है। वो नारे लगा रहा था। बड़ी जोर से लगा रहा था और लगाते जा रहा था। मेरा सिर भारी हो रहा था। लौटते हुए लोकल की खटपट में मैंने उसे मेरे ही डब्बे में पाया। वो मेरी ओर मुस्कुरा रहा था। मेरी नज़रें नीचे थीं पर मैं देख पा रहा था कि वो अब भी मुस्कुरा रहा है।

स्टेशन आ गया था । भीड़ थी, सट कर चल रहे थे। हम दोनों के हाथ बार-बार रह रह कर टकरा रहे थे। वो अब भी मुस्कुरा रहा था। उसने अपनी छोटी-सी ऊँगली से मेरी छोटी ऊँगली को पकड़ लिया, या पूरा हाथ पकड़ा था? याद नहीं पड़ता। बड़ा अजीब दिन था। पहली बार किसी ने केवल हाथ ही पकड़ा था।

“आज फिर जाग गए जल्दी।” वरुण जाग चुका था। अंदर जाने से पहले देखा। उसके यहाँ अब भी लाइट जल रही थी। “वो अब आज भी जगा हुआ था। मैंने बिना किसी मतलब के बोला:

“कौन?”

“वो”

“ओ वो। मिल आ जा, कन्धा ठीक है आज।”

“दिल होता है कि कह दूँ कि माफ़ किया भाई मैंने तुझे। ऊपर से ही सही पर कह दूँ।”

“किस-किस को माफ़ करेगा तू?”

“और किस को?’

“तेरे सफ़ेद बालो से घिरे अंकल को।”

“मरे हुए लोगो को ‘बाई डिफ़ॉल्ट’ माफ़ी मिल जाती है।”

न जाने क्यों मैं हँसा।

“कब जा रहे हो?” उसने पूछा।

मैं अलसाने लगा। शायद मैं बात को टालना चाहता था।

“परसों”

“मैं आऊँ छोड़ने?” उसने पूछा।

चुप्पी…

“आखरी रात थी?” उसने कहा।

“मैं आऊँगा न कल, अगर टाइम मिला तो।”

“पक्का?” उसने पूछा।

चुप्पी।

“रुक जाओ ना।” वो ये बात दर्ज़न बार बोल चूका है।

चुप्पी।

वो कहता जा रहा था। मैं बचता जा रहा था। बहुत अजीब बातें कर रहा था। जैसे तुम आखिर जा रहे हो। पलट कर भी नहीं देखोगे। तुम्हारी जगह कल कोई और भरेगा। पर एक ख़ालीपन रह जायेगा। हमेशा रह जाता है। डर लगता है कभी बस ख़ालीपन ही बचा न रह जाये। मैंने उसकी हर बात का जवाब बस चुप्पी से दिया। कुछ नहीं तो अब मैं उसकी बिल्डिंग की और देखने लगा।

आखरी दिन वापसी की तयारी में बहुत जल्दी से बिना बताये गुजर गया। भागा-दौड़ी में बहुत बार उस पीली बिल्डिंग के सामने से गुज़रा। मैं अंदर नहीं जा पाया। बहुत मुश्किल होता है आखरी कुछ क़दम चलना। उस दिन भी स्टेशन से रास्ते भर मैं चुप था, घबराया हुआ था। और वो बस मुस्कुराता जा रहा था, हम एक दूसरे को हल्के से छूते हुए चल रहे थे।

कथा ‘वापसी’ का दूसरा और निर्णायक भाग यहाँ पढ़ें।