ताज महल - एक लघुकथा | छाया: कार्तिक शर्मा | सौजन्य: QGraphy

Hindi

ताज महल (एक लघुकथा)

By कपिल कुमार (Kapil Kumar)

June 12, 2016

“तुमने ताज महल देखा है?” “हाँ।” “ऐसे नहीं…. रात को ?” “नहीं। क्यों ?” “पच्चीस साल पहले ,मेरी…” “मै चौबीस का हूँ।” “सुनो ना… पच्चीस साल पहले मेरी पोस्टिंग आगरा मे थी। उन दिनों आज जैसी सिक्योरिटी – विक्योरिटी नहीं होती थी। मैं रोज देखता था उसे, हर मौसम में। कभी तपता हुआ, कभी ठिठुरता हुआ ताजमहल। कभी गुनगुनाती-सी यमुना, कभी पुकार चकोर की, कभी सुनसान। हर शाम डूबते सूरज के साथ वह कुछ-कुछ बदल जाता था। हर रोज नया-सा वह। एक नया-सा रंग: कभी सुर्ख लाल, बैंगनी, कभी हल्का-सा नीला, कभी हल्का-सा पीला। पर वह सबसे सुन्दर लगता था जब वह चाँद की रौशनी में नहाया होता था। जब चाँद पूरा होता था तो गुलाबी दिखता था। गुलाबी चमक लिए नहीं,आभा लिए हुए, गुलाबी । उससे सुन्दर कुछ बना नहीं, कुछ बन नहीं सकता, कुछ हो नहीं सकता। चमक लिए हुए नहीं, आभा लिए हुए गुलाबी। “

उसने अपने बगल में लेते उस चौबीस साल के कभी ना बड़े होनेवाले बच्चे को देखा, जो पककर उसे देख रहा था। जो शायद कभी उस गुलाबी रंग को नहीं देख पायेगा, महसूस नहीं कर पायेगा |

वह चौबीस बरस का ‘बच्चा’ सुबह अपने आप को समेटकर निकल जाता है। फिर वे दोनों कभी नहीं मिलते। वक़्त गुजरता जाता है। धुँधलाते-धुँधलाते सारे निशान मिट जाते है। उस रात का हर दाग मिट जाता है। वह उनका मिलना, वह ताजमहल की छोटी-सी बात, फिर लम्बी-सी रात, जैसे कुछ हुआ ही ना हो… कभी हुआ ही न हो।

वक़्त के इस छोर से उस छोर तक देखने पर कई बातें मुझे सलती हैं जो कहीं नहीं गई, महसूस नहीं की गयी हैं। मिट गयी हैं या मिटा दी गई हैं। जैसे: वे दो लोग जो ट्यूब लाईट की फ्लोरेसेंट रौशनी में नहाये हुए पब्लिक टॉयलेट में मिलते है… पर जो चांदनी में नहाये हुए गुलाबी ताजमहल की बाते करते है।