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‘रिवाज’ – एक कविता

'रिवाज' - एक कविता | छाया: आकाश मंडल | सौजन्य: QGraphy

‘रिवाज’ – एक कविता | छाया: आकाश मंडल | सौजन्य: QGraphy

कई दिनो से वो एक दुसरे को जानते थे
अच्छी तरह न सही
पर एक दूसरे के अस्तित्व में होने को तो
वो जानते ही थे ।

उन्होंने एक दूसरे का चेहरा नहीं देखा था
न एक दूसरे के नाम से वाक़िफ़ थे
पर उन्हें एक दूसरे के बारे में
कुछ ऐसी बाते पता थी

जो उनके करीबी भी
न जान सकते थे
न सोच सकते थे ।

आखिर बड़ी झिझक के बाद
एक ने अपने नंबर दिए
दूसरे ने बड़ी झिझक के साथ
कॉल किया ।
वो मिले , घंटो तक मिलते रहे
बिना किसी तकल्लुफ़ के, लेटे हुए
अकेले में मिलते रहे घंटो तक

बिना कुछ कहे , बिना कुछ सुने
बस मिलते रहे ।

बड़ी घिन्न के साथ
एक दूसरे से अलग हुए

किसी रिवाज़ की तरह
एक ने कहा
“नंबर डिलीट कर देना ।”
खाली पजामे में बंधे
दूसरे ने
हां में सिर हिला दिया ।
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