'वापसी' (२/२) | तस्वीर: ग्लेन हेडन |

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“वापसी” एक शृंखलाबद्ध कहानी (भाग २/२)

By कपिल कुमार (Kapil Kumar)

June 11, 2017

कहानी की पहली किश्त यहाँ पढ़ें।

उसका घर, घर जैसा था। फिर बातें हुई, बहुत-सी बातें, कुछ जरुरी थी, कुछ ग़ैर-जरुरी, कुछ याद हैं, बहुत-सी नहीं भी। उन बातो का सार यही था कि उसका नाम मधेश है, जिसका मतलब होता है मच्छर या मक्खी या तितली या ऐसा ही कुछ, मुझे आज याद नहीं पड़ता। और उसका अभी-अभी डाइवोर्स हुआ है। और उसने शादी की हर रात जाग कर बितायी थी, रोते हुए। (हालांकि उसने “रोते हुए” नहीं कहा था। पर कोई रात भर जागकर, और कर भी क्या सकता है?)। बातचीत की दिशा बदलने लगी। और जब तक मुझे पता चलता, मैं कहीं दफ़न अपने भद्दे चेहरे को उसके सामने बेपर्दा कर रहा था।

“बस हाय हेलो… उसके बाद नंगे हो जाना …… मुश्किल होता होगा।” उसका मुँह खुला हुआ था। — “नहीं।” मैं क्या बोलता? “ऑकवर्ड होता होगा?” — “नहीं।” “ऑकवर्ड होता ही होगा?” — “यू नो सबसे ऑकवर्ड पार्ट क्या है? किसी अजनबी के सामने कपड़े उतारना नहीं। कपड़े वापस पहनना। एक दूसरे से आँखें बचाते हुए। हर बार कुछ न कुछ बोला जाता है जो आपको और छोटा बनाता है।” “जैसे की?” उसका मुँह अब भी खुला था। —”ख़त्म होते ही किसी को अपनी काल्पनिक गर्लफ्रेंड याद आने लगती है।

कहते हैं “मेरे होठ उनकी ‘एक्स-गर्लफ्रेंड’ जैसे है”। मैं बोलता जा रहा था। “किसी को तभी अहसास होता है कि वो तो राइटर है और ये सब वो अनुभव के लिए कर रहा था। वो मेरे बारे में भी लिखेगा। मेरे ऊपर एक पूरा चैप्टर न सही पर एक पैराग्राफ तो होगा।” “और सबसे हद करते हैं तुम जैसे शादीशुदा लोग। गंजे, मोटे लाल गालों वाले.. जो मेरे कपड़े उतारने के लिए गिड़गिड़ाते हैं। और वापस कपड़े पहनते वक़्त वो हमेशा बोलते हैं कि यह उनकी आखरी बार थी।” मैं रुका।

“मैं शादीशुदा नहीं, तलाक़शुदा हूँ।” वह खुला हुआ मूँह बंद हो चूका था। मुझे दया आई। —”और तुम मोटे-गंजे और लाल गाल वाले भी नहीं हो। मैं तुम्हारे बारे में नहीं बोल रहा था।” थोड़ी देर चुप्पी छायी रही फिर मैंने ही बोलना शुरू किया: “पता है। कभी किसी के साथ आँखे खोल कर नहीं किया।” —”तुम डरते हो।” “किससे? उनसे?” उसने काफी गंभीर मुद्रा में कहना शुरू किया: “नहीं, अपने आप से। क्योकि वो शादीशुदा गंजे, मोटा गए, लाल गालो वाले छुपते-छुपाते मर्द और कुछ नहीं, तुम्हारा कल हैं। तुम बस नज़रे चुरा रहे हो जब तक चुरा सकते हो।”

बाते चलती रही। अंततः मैं चलने को हुआ। और वो अजीब हो गया। उसकी आँखों मे नशा-सा तैर आया था। और मैं आया भी तो इसलिए था। पर पता नहीं क्यों… आज… “मधेश किसी और दिन। थकान है। दिन बहुत लम्बा था।” —”बस हग ही तो कर रहे हैं … कुछ नहीं करूँगा।” पर मैं जनता था ये कहाँ जा रहा है, उसकी साँसें तेज़ चल रही थी। उसने मुझे इतना तेज़ जकड़ रखा था कि मैं उसकी धक-धक-धक-धक सुन सकता था। अज़गर की तरह पकड़ थी। मैं बचना चाहता था। मैं और छोटा नहीं बनना चाहता था। मैं दबता जा रहा था, वो लगातार नाक मेरी नाक पर रगड़ रहा था फिर उसके होंठ मेरे होंठों पर रगड़ता जा रहा था। वो किस नहीं था। मैं थक चूका था। मैं उसे पीछे धकेलना देना चाहता था। पर वो मुझे दबाये जा रहा था। मैंने ज़ोर लगाया। टक की आवाज़ के साथ कुछ टूट गया। वो मेरा कन्धा था। मैं दर्द से बिलख रहा था पर उसे थोड़ी राहत थी कि मैं चिल्ला नहीं रहा।

वो रुका नहीं। बिलकुल भी नहीं। वो रौंदता रहा। उसके लिए ये अब ज्यादा आसान हो गया था। हर धक्के के साथ दर्द और ज्यादा गहराता जा रहा था। हर मिनिट हर सेकंड बस दर्द से भरा था। जैसे मुझे पिघले हुए शीसे में डूबा दिया हो। एक हद के बाद महसूस होना बंद हो गया। कोई दर्द नहीं, सिहरन नहीं। और सब कुछ खत्म होने के बाद पल गुजरते रहे। दर्द हमेशा के लिए ठहरा रहा।

वो अब रुक चूका था इसलिए नहीं कि उसे मुझ पर दया आई थी। वो कुछ वक़्त ऐसे ही बैठा रहा जैसे उसे अब पता ही नहीं कि क्या करना है। शायद उसकी आँखों में आँसूं थे या वो मेरी कल्पना है। फिर उसने मुझे उठाया। टेड़े-मेढे हो चुके मेरे कंधे को। उसने हाथ भर लगाया था कि मैं चिल्ला पड़ा। अब शांति थी।

उसके कुछ शब्द जो वो बार-बार बोल रहा था वो इस तरह से थे: “नहीं टूटा नहीं है रे। बस बाइट है। रात भर में ठीक हो जायेगा। “मैं उस अँधेरे कॉरिडोर में गर्दन झुकाये चला जा रहा था। बहुत कुछ टूट चूका था। मैं रोते जा रहा था। पीछे नहीं देख रहा था। पर मैं जानता था कि वो किवाड़ की ओट से देख रहा है। सालो बाद आज मैं उसी दरवाज़े पर था। मेरा दिल उछल रहा था।

पर ये मुझे करना ही था वापसी से पहले। मैं मधेश को नहीं अपने पुरे कल को माफ़ कर रहा हूँ। घंटी बजायी। एक बार फिर। “हाँ कौन चाहिए?” एक प्रौढ़ महिला थी। मैं खामोश था। “देखिये न कौन है?” गेट के कोने से मैंने मधेश को आते हुए देखा। गंजा हो गया था… मोटा गया था… गालो पर लाली भी आ गयी थी। मैं लौट आया उस मुरझाई हुए औरत की झलक देख कर। सूनापन था, उस औरत की आँखों के नीचे कालापन छाया था जैसे कई रातो से सोई नहीं हो। आँखों में ही काट दी हो रोते हुए (कोई रात भर जाग कर, कर भी क्या सकता है?)। जलती रहती हो शायद। खिड़की से। “एक ही प्रेस करना, ज़ीरो नहीं। एक ग्राउंड फ्लोर है, ज़ीरो बेसमेंट।” पीछे एक बच्चा खड़ा था। उसी तरह जैसे उस दिन मधेश ने कॉरिडोर के उस और से बताया था। “एक ही प्रेस करना, ज़ीरो नहीं। एक ग्राउंड फ्लोर है, ज़ीरो बेसमेंट।” जैसे ये बता कर वो सारे पापों से मुक्त हो गया हो। मैं तब भी लिफ्ट में रोया था और आज भी, न जाने क्यों? रात जल्दी घिर आई, आखरी रात थी मुंबई में।

वही सपना, वही कॉरिडोर, वही हताशा, वही लिफ्ट, वही आवाज़। पलट कर देखता हूँ… आवाज़ स्पष्ट होती जाती है, चेहरा भी। कोई और नहीं, मैं था वो। किवाड़ के पीछे छुपा, गंजा, मोटा गया था मैं, गालो पर लाली भी थी। और कह रहा था, “जीरो नहीं..”। नींद खुल गयी, तीन बज रहे थे, बारिश अब भी हो रही थी। मैं पसीने से तर था। मैं कुछ ढूंढने लगा, शायद फ़ोन। बात करनी थी “हेलो, हाँ पापा मैं वापस नहीं आ सकता।”