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संघर्ष जारी है

संघर्ष जारी है. तस्वीर: बृजेश सुकुमारन

संघर्ष जारी है (तस्वीर: बृजेश सुकुमारन)

ये अधिकारों और समानता की लड़ाई है

हमारे समाज का बड़ा तबक़ा अपने अधिकारों को पाने के लिए लड़ रहा है। इसमें ‘आधी आबादी’ यानि औरतों से लेकर दलित, आदिवासी आवाज़ बुलंद कर रहे हैं। बदलते समाज का एक प्रबुद्ध और बुद्धिजीवी हिस्सा उनका साथ दे रहा है। सीमित दायरे में ही सही, मीडिया भी अब उनके अधिकारों और उनकी बातों को छापने, संप्रेषित करने में कतराता नहीं। ‘नारीवाद’, ‘समानता’, ‘अधिकार’ जैसी शब्दावली अख़बारों के किसी लेख में नज़र आ जाती है, पर इस बीच समाज का एक तबक़ा ऐसा भी है जिससे ‘हिंदी मीडिया’ दूरी बनाये रखना ही जैसे बेहतर विकल्प समझता है ,ये तबका समलैंगिको का है। क्या यह महज संयोग है? या इसके साथ एक सोच जुड़ी है – वो मानसिकता जो समलैंगिकता को ओछी नज़रों से देखती आयी है।?

बैंगलुरू में रहने वाले शिवम (बदला हुआ नाम), पेशे से आर्किटेक्ट हैं। उनकी माँ अंग्रेजी और हिन्दी कम जानती हैं, इसलिए शिवम इन दिनों उन्हें कन्नड़ भाषा के ज़रिये समलैंगिकता के अलग अलग पहलू समझा रहे हैं। समलैंगिक समुदाय के सभी सदस्य शिवम जितने ख़ुशक़िस्मत नहीं कि उन्हें अपने घरवालों से वैसा ही सहयोग मिले जैसा शिवम को उनकी माँ से मिल रहा है। ‘ज़िंदगी लाइव’जैसे एक आद प्रोग्राम की बदौलत उम्मीद ज़रूर जगी, कि हिंदी मीडिया आनेवाले वक्त में इस विषय को लेकर अपने नज़रिए में बदलाव लाये। लेकिन हैरानी की बात है – इस तरह के और कार्यक्रम कम ही बन पाए।

११ दिसंबर २०१३ के सुप्रीम कोर्ट के धरा ३७७-विषयक निर्णय के दो महीनों पहले कि ही बात है। जहाँ देश की शीर्ष अदालत समलैंगिको से जुड़े (आर्टिकल ३७७ पर) ख़ास फैसला सुनाने जा रही थी, समलैंगिक दिल्ली में नवम्बर महीने में ‘प्राइड परेड’ करने जा रहे थे, लेकिन वहीँ हिंदी के अखबार और चैनल समलैंगिकता जैसे विषय पर जैसे चुप्पी साधे हुए थे।

जब एन.जी.ओ. संस्थाएँ भी इस विषय पर समाज में जागरूकता लाने कि कोशिश कर रहीं हैं, मीडिया में इस विषय पर चुप्पी चिंता का विषय है। अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं में ये चुप्पी कम नज़र आती है। वहाँ समलैंगिको और समलैंगिकता से जुड़े लेख थोड़े ज़यादा संख्या में छपते हैं । इतना ही नहीं अभी हाल ही में ख़ास एल.जी.बी.टी.आई. कम्युनटी के लिए एक रेडियो स्टेशन की बंगलोर से शुरुआत हुई, ‘क्यू रेडियो’ नाम का ये इन्टरनेट रेडियो,भारत का पहला ऐसा रेडियो स्टेशन जो समलैंगिको के संघर्ष की दास्ताँ बयाँ करता है। लेकिन इसका ज़्यादातर कंटेन्ट अंगेजी में ही प्रसारित होता है। यानी हिंदी मीडिया की पहुंच यहाँ भी कम है।

बकौल गे एक्टिविस्ट हरीश अय्यर, “भारत के लोग सेक्स पर बात नहीं करते, पर सेक्स बहुत करते हैं।” जब समलैंगिको की छवि को ही सही तरीके से दिखाने के बजाय उसे ‘मानसिक रोगी’ या बैड बॉय’ का तमगा पकड़ा दिया जाये तो युवा समलैंगिकों को अपने बारे में खुलके सच बताना और भी मुश्किल हो जाता है। समलैंगिकता से जुड़ी खबर को किस तरह प्रस्तुत होती है? रिपोर्टों में कैसे शब्द इस्तेमाल किए जाते हैं इस समाज का विवरण देते समय? क्या ऐंकरों को इस विषय पर ज़रूरी उतना ज्ञान है, या वे अपनी धारणाओं के बल-बूते बयान दे रहे हैं? गलत और अज्ञान से भरी ख़बरों से ‘खराब’ छवि रच बस जाती है। इसतरह की छवि बनाने में सिनेमा का भी हाथ होने के अवसर देखें गए हैं है।

प्रादेशिक मीडिया समलैंगिकता को छुआ नहीं करती थी, अगर कुछ छापती थी तो उसे ‘गे रैकेट का भंडाफोड़’ जैसी सुर्ख़ियों से सनसनीखेज़ बना देती थी, जबकि ज़रुरत इस विषय को संवेदनशीलता के साथ पेश करने की थी। मीडिया इस मुद्दे पर संवेदनशीलता बरते ऐसा अब तक कम ही देखने को मिला। पर हाल के वर्षों में कुछ अपवाद भी देखने को मिले, छोटे परदे से लेकर बड़े परदे तक। जहां एक ओर छोटे परदे पर ‘बिगबॉस’ जैसे रीयल्टी शो में समलैंगिक प्रतिभागियों को मोका मिला, वहीँ, सिनेमा के १०० वर्ष पूरे होने पर ‘बॉम्बे टॉकीज़’ जैसी फिल्म ने इस मुद्दे को काफी संवेदनशील तरीके से सामने रखा। ये भी सच है कि इससे पहले कई फिल्में ऐसे रहीं जहाँ समलैंगिकता को ‘हास्य के विषय’ के तौर पर दिखाया गया।

समलैंगिकता एक संवेदनशील मुद्दा है इससे ना सिर्फ समलैंगिक बल्कि उनके परिवार भी जुड़े हैं, पश्चिम देशों के मुकाबले हमारे देश में इस मुद्दे पर हाल के कुछ वर्षों में ही चर्चा देखने-सुनने को मिली है, इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि मीडिया कवरेज में सकारात्मक रवैय्या उठाए। क्योंकि मीडिया का काम जागरूकता लाना है, गलतफहमियाँ फैलाना नहीं। समलैंगिकता को अपराधिक श्रेणी से हटाने को लेकर कई संगठन और परिवार संघर्षरत हैं, लोगो को जागरूक कर रहें हैं। संघर्ष बेशक लंबा है, लेकिन ये संघर्ष समानता का है, अधिकारों का है, उसे जारी रखने के लिए हमारी मीडिया से उम्मीदें बढ़ गई हैं।

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