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कविता: रिश्ते

देवेश खाटू

सुना है रिश्ते बनकर बिगड़ते भी हैं
कहते हैं सफ़र में कई हाथ छुट्टे भी हैं।

जो दिल कभी इक दूसरे को मिलने तरसते थे
वो कभी अलग होने को मचलते भी हैं।

कई सपने मिलकर देखें होंगे कभी
हक़ीक़त की चट्टानों पर वो बिखरते भी हैं।

ये भी सुना है की सुलगती आग होती है दिलों में
पर बिना कतराए वहाँ राख पाकर गुज़रते भी हैं।

कोई मजबूरी होगी उनकी शायद फलक तक न चलने कि
तभी तो अगला कदम बढ़ाने से कुछ डरते भी हैं।

जो समाज कि नज़र से न डरते थे कभी
वो “लोग क्या कहेंगे” सोच के झिजकते भी हैं।

क़ानून से बेपरवाह होकर इश्क़ करते थे कभी
वो अब न्याय मिलने पर खुल के जीने से हिचकते भी हैं।

सबको आगे बढ़ने का हक़ तो है
पर कुछ तनहा ख़्वाब जीते जि मरते भी हैं।

हाँ कुछ ऐसे किससे ज़हन में तो आते हैं
पर हमें क्या पता ये तो कही सुनी बातें हैं।

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