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कविता : बंदिशें

Picture Credit: Raj Pandey / QGraphy

ये किस तरह की बंदिशों में कैद हूँ मैं?
क्यों इस तरह घुट-घुट के जीने को मजबूर हूँ मैं?
अपनी पहचान से दूर रहता हूँ मैं ।
इस कदर जीने को मजबूर रहता हूँ मैं ।
काश होता इतना आसान खुद की पहचान बताना
कि ना पड़ता मुझे खुद को यूँ छुपाना ।
बहुत तड़पता हूँ, छटपटाता हूँ मैं ।
कोई मुझे जैसा हूँ वैसा ही अपना बना ले बस,
इतना ही तो चाहता हूँ मैं ।

कशमकश से भरी ज़िदगी से थक गया हूँ मैं ।
ना चाह कर भी खामोश सा हो गया हूँ मैं ।
अपनों में अपनों को खोजता हूँ मैं ।
हर किसी की आँखों में अपनी एक जगह ढूँढ़ता हूँ मैं ।
ये किस तरह की बंदिशों में कैद हूँ मैं?
क्यों इस तरह घुट-घुट के जीने को मजबूर हूँ मैं?

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