आदित्य और मैं... मैं और आदित्य..। तस्वीर: बृजेश सुकुमारन।

Hindi

शृंखलाबद्ध कहानी ‘आदित्य’ भाग ४/५

By Jay Yadav

April 01, 2014

मैं आदित्य से अभिन्न हूं। हम दो शरीर एक जान हैं।

पढ़िए कहानी की पहली, दूसरी औरतीसरी कड़ी। पेश है चौथी कड़ी:

मैंने बिना भविष्य की चिन्ता किए इस प्रश्न का जवाब इस तरह से लिखा-

प्रिय आदित्य

मैं तुम्हारी बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि किसी भी रिश्ते को शब्दों से बोल कर नहीं बल्कि दिल से दिल जोड कर स्थापित किया जाता है। मैं स्वयं भी उस संबंध को ही स्वीकार करता हूँ जिसे मेरा दिल स्वीकार करता है और इस समय बस इतना कहना चाहता हूँ कि मुझे वही संबंध या रिश्ता चाहिए जो तुम्हारा दिल मुझ से जोडना चाहता है। मैं दिखावे में नहीं वास्तविकता में भरोसा करता हूँ। दूसरी बात तुमने गलती की है तो तुम्हें सजा देने का अधिकार मेरा है और मैं तुम्हें सजा यह दे रहा हूँ कि “ मुझे तुम्हारे साथ की जरूरत है” उस रात भले ही तुमने मेरी आँखों में घृणा के भाव देखे हों लेकिन अब वो घृणा के भाव बदलकर चाहत हो गये हैं। और एक बात किसी से प्रेम करना पाप नहीं है, जो कुछ होता है ईश्वरीय इच्छा से अच्छा ही होता है। अब तुम्ही सोचो अगर इतना कुछ नहीं हुआ होता तो मुझे शायद ही तुम्हारी भावनाओं के बारे में पता चल पाता। तुम बिल्कुल भी दोषी नहीं हो। एक बात और मैं नहीं जानता, कहना चाहिए या नहीं लेकिन कह रहा हूँ। तुम्हें मेरे शरीर से ही मोह है, अगर है ना तो मैं इसे मैं तुम्हें देता हूँ, अगर बुरा लगा हो तो माफ कर देना । अब आप हमसे आई हेट यू करते हैं या नहीं यह तो हम नहीं जानते लेकिन हमें पता है कि हमें आपसे बिल्कुल भी हेट नहीं है।

तुम्हारा (जो भी समझो) जय

अगले दिन मैं पूरा दिन आदित्य का इन्तजार करता रहा कि शायद वह मेरे घर आये लेकिन वह मेरे घर नहीं आया ( उस दिन कुछ न कह पाने की बेचैनी महसूस हो रही थी, ऐसा लग रहा था जैसे मन का पंछी कहीं फंस कर फडफडा रहा है। इसी तरह मैंने पूरा एक सप्ताह उसके अपने घर आने का इन्तजार किया। मैंने उस पत्र को बहुत ही संभालकर और छुपा कर रखा था। धीरे-धीरे पत्र देने की बेकरारी मेरे मन में बेचैनी पैदा करने लगी और शायद आदित्य का मासूम सा चेहरा दिल में अपनी एक जगह धीरे-धीरे बनाने लगा। पूरा एक सप्ताह बीतने पर मुझे लगा कि अब शायद ही आदित्य मेरे घर आये इसीलिए मैं स्वयं उसके घर पर एक पुस्तक जिसका नाम अरेबियन नाइटस था लेकर और उसमें वह पत्र रख कर ले गया।

उसके घर में घुसते ही आदित्य की मम्मी मुझे नजर आईं। मैं उनसे आदित्य के बारे मे पूछ ही रहा था कि आदित्य आ गया। मुझे देखते ही उसके चेहरे पर घबराहट के भाव आ गये और उसने केवल इतना ही पूछा ‘आप?’ मैंने उसकी तरफ हुए कहा ‘तुमने ये किताब पढने के लिए माँगी थी ना, लो मैं ले आया’। उसने आश्चर्य से मेरी तरफ देखा, मैंने आँखों से इशारों में ही उसे वह पुस्तक रख लेने के लिए कहा। उसने वह पुस्तक मेरे हाथ से ले ली और बिना कुछ बोले अपने कमरे में चला गया। मैं चाहता था कि उसे पत्र को पढने और समझने के लिए कुछ समय दूँ इसीलिए वहीं पर आंटी के पास ही बैठकर बातें करने लगा। करीब २० मिनट बाद मैं आदित्य के कमरे में गया, शायद तब तक वह पुस्तक में से मेरा पत्र पढ चुका था।

मेरे कमरे मे पहुँचते ही उसने कूलर स्टार्ट कर दिया। कूलर पुराना था इसीलिए कुछ शोर मचाते हुए चलने लगा। उसने कमरे के दरवाजे को बन्द कर दिया, मैंने उसके चेहरे को अब फिर से देखा वही संतोष के भाव फिर से नजर आये, जो पहले नजर आये थे। मैं उसके बैड पर जाकर बैठ गया, वह नजरें नीचे किए काफी देर तक बैठा रहा, ज्यों ही मैं उठकर चलने को हुआ उसने मेरा हाथ पकड कर मुझे रोक लिया और मेरे गले से लग गया। उसने मुझे ऐसा पकड रखा था जैसे कभी छोडेगा ही नहीं, या जैसे कोई मुझे उसके हाथों से छीन लेगा। उसके बाद वह काफी समय तक मेरे शरीर से चिपका हुआ रोता रहा। मैंने हलके हाथ से कोशिश भी की कि उसे अलग करके चुप कराऊँ, लेकिन तेज पकड के कारण उसे अलग नहीं कर सका। उसके आँसूओं के कारण मेरी पीठ भीग रही थी। यह बिल्कुल वैसा ही दृश्य प्रतीत हो रहा था जैसे प्रेमी काफी समय बाद प्रेमिका के सामने आये और प्रेमिका प्रेमी के गले लग कर रो पडे। उसे कुछ देर बाद इस बात का एहसास हुआ कि उसने मुझे काफी समय से जकड रखा है। कूलर शायद उसने इसीलिए स्टार्ट किया था कि उसके रोने की आवाज बाहर ना जाये।

मैंने उससे पूछा अब बताओ तुम मुझे अपना क्या समझते हो, उसने ऐसी बात कही कि मैं आगे कुछ कह ही नहीं पाया। उसने कहा- बस प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम ना दो। प्यार तो अपने आप में इतना बडा रिश्ता है फिर उसे कोई नाम देने की जरूरत ही क्या है? अक्सर पहले रिश्ते बनते हैं फिर प्यार होता है, लेकिन जब पहले प्यार ही हो गया तो रिश्ते की जरूरत ही क्या है?

उसके बाद मैं चुपचाप उठा और उठकर अपने घर चला गया। अब मुझे, उसके आँसू और उसके शब्द ‘प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो’, बेचैन करने लगे, मुझे लगा आदित्य को मेरे साथ की जरूरत है। उसके बाद अक्सर सवेरे मैं और वो अपनी-अपनी छत पर बैठ कर एक-दूसरे को दुनिया की नजरें बचाकर काफी-काफी देर तक देखा करते। हम दोनों और कभी –कभी विजय भी शाम के समय पार्क में टहलने जाते। जब केवल मैं और आदित्य होते तो पार्क के एक कोने में जहाँ कोई नहीं होता बैठ जाते और काफी देर तके बातें करते रहते थे। आदित्य मुझसे अपनी सभी बातें बताता, अपने कालेज की, अपने दोस्तों की और अपने घर की निजी बातें भी। उसने कभी भी मुझसे कुछ भी नहीं छिपाया। कभी- कभी मैं वहीं घास पर लेट जाता और आदित्य की गोद में सिर रख कर उसकी बातें सुना करता, कभी आँखें बन्द करके सोचा करता। वह अपने कोमल हाथों से जब कभी भी मेरे सिर पर और बालों पर हाथ फेरता तो मुझे शरीर में सिहरन-सी महसूस होती और अच्छा लगता। कभी-कभी जब मैं उसकी गोद में सिर रख कर सोया होता तो वह मजाक में ही अपनी अंगुलियाँ सिर से चलाते हुए गले से चलाते हुए सीने तक ले आता, उसकी इस हरकत से मुझे गुदगुदी महसूस होती और मैं झट से उसके हाथ को पकड कर कहता कि तुम सुधरोगे नहीं। कभी-कभी मैं जब उसकी गोद में सिर रख कर लेटा होता तो वह मुझे मेरे माथे पर किस किया करता। शायद यह उसको अच्छा लगता हो लेकिन मुझे कभी भी ये बुरा नहीं लगा।

धीरे-धीरे समय बीत रहा था, हम दोनो ही अपने नियमित कामों को करते हुए खुश थे। यह कहना अधिक ठीक होगा कि हम दोनो बहुत खुश थे। मुझे इस दौरान यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि हमारे बीच शायद ही कभी शारीरिक संबंध बनें हों। ऐसे ही एक बार मैंने मजाक में उस से पूछा था कि “ आदित्य अब तुम्हें मेरे शरीर की जरूरत नहीं है, क्या? मेरा मतलब सैक्स रिलेशन से है। तो उसके जवाब को सुनकर मुझे बहुत अच्छा लगा था उसने कहा था- जब आपका दिल ही मेरे पास है तो मुझे इस शरीर का क्या करना? आपने मेरी भावनाओं को समझा, मुझे समझा, मेरी भावनाओं का सम्मान किया यह मेरे लिए सभी सुखों से बढ कर है। कई बार वह मेरे लिए मन्दिर जाता और मेरे लिए भगवान का प्रसाद जरूर लाता।

ऐसे ही एक बार जब वो मेरे लिए प्रसाद लेकर आया तो मैंने पूछा “भगवान से क्या मांगा? मुझे?” उसने मेरी आँखों में देखते हुए कहा था कि “आप तो मेरे पास हैं ही, मैंने तो भगवान से आपकी खुशियाँ मांगी कि भगवान आपको हमेशा खुश रखें क्योंकि आपकी खुशी में ही तो मेरी खुशी है। आप खुश तो मैं खुश्।” अच्छा समय ऐसे बीतता है जैसे उसके पंख लग गये हैं। दो साल किस तरह बीत गये मुझे अहसास ही नहीं हुआ। अब मैं नौकरी की तलाश में था और आदित्य अपने एम काम के पेपर की तैयारी में लगा हुआ था।

उस दिन मैं कही इन्टरव्यू देकर आया था और बहुत दुखी और परेशान महसूस कर रहा था। तभी आदित्य मेरे पास आया। उसने मेरे चेहरे को देखा और शायद मेरी निराशा को मेरे चेहरे से भाँप लिया, शायद वह मुझे बातें कर के और परेशान नहीं करना चाह रहा था इसीलिए चुपचाप चला गया। अगला दिन गुरुवार था, आदित्य का किसी विषय का पेपर था इसीलिए मैं दिन में उस से नहीं मिल पाया। शाम को मैं, मेरे कमरे मे बैठा एक पत्रिका पढ रहा था, वह मेरे लिये प्रसाद लेकर आया। वह पेपर देने के बाद किसी सांई मन्दिर में दर्शन करने गया था, भीड अधिक होने की वजह से वह कई घन्टे लाईन मे लग कर, सांई बाबा के दर्शन कर के, मेरे लिए प्रसाद लेकर आया। मुझे प्रसाद देते हुए, बोला मुँह खोलो, मैंने चुपचाप मुँह खोल दिया उसने प्रसाद से मिठाई के चार दाने मेरे मुँह में डाल दिए और बोला मैंने उनसे आपकी नौकरी के लिए बोला है और अब देखना आपकी नौकरी जरूर लग जायेगी। मैंने कहा आदित्य भगवान से जो मांगते हैं वो किसी से बताते नहीं है तो उसने कहा कि मैं और आप अलग थोडे ही हैं। हम तो अलग होकर भी एक हैं। मैंने कहा अच्छा तुम मेरे लिए इतना परेशान होना बन्द करो और अपने फ़ाईनल पेपर (एम.काम.) की तैयारी करो। अगले दिन मुझे इन्टरव्यू देने जाना था, मैं गया और भाग्य से बरसात के कारण वहाँ बस दो लोग ही इन्टरव्यू के लिए पहुँचे, मैं और रश्मी नाम की एक लडकी। दोनो का ही सेलेक्शन हो गया और हमें पेमेन्ट भी ठीक-ठाक ही मिलना तय हुआ। मुझे आदित्य का ध्यान आया। मुझे वह बात ठीक लगी कि अगर सच्चे दिल से प्रार्थना करो तो वह कबूल जरूर होती है। शायद आदित्य का सच्चा प्यार ही था जो वह हमेशा मेरे लिए ही ईश्वर से माँगता था अपने लिए कुछ भी नहीं। यहाँ तक की प्रेमिकायें भगवान से प्रेमी को अपने लिए माँगती हैं लेकिन उसने कभी भी भगवान से मुझे, अपने लिए नहीं माँगा। शायद यही सच्चा प्यार होता है।

नौकरी लगने के बाद मै ज्यादा ही व्यस्त रहने लगा। मैं आदित्य को अधिक समय नहीं दे पाता था क्योंकि सवेरे १० बजे जाना होता था और रात को को नौ या दस बज जाते थे आने में। तो फिर इतनी व्यस्तता के चलते हम एक दूसरे से दूर होने लगे थे। आदित्य से अब केवल रविवार या दूसरी छुट्टियों के दिन ही मिलना होता था और वहाँ आदित्य की छुट्टियाँ हो गई थीं, क्योंकि परिक्षायें समाप्त हो गईं थी। लेकिन जब भी वह मुझ से मिलने आया मुझे कभी भी उससे यह शिकायत सुनने को नहीं मिली कि अब मैं उसे समय नहीं दे पाता हूँ। वह हमेशा खुशी के साथ ही मुझसे मिलने आता था। धीरे-धीरे आदित्य और मेरे बीच की दूरियाँ बढती जा रहीं थीं क्योंकि व्यस्तता इसकी अधिक हो जाती थी कि कई-कई हफ्तों तक बस राह चलते एक दूसरे की सूरत ही देख पाते थे, बातें नहीं कर पाते थे। एक दिन पता चला कि आदित्य को वाईरल फीवर हो गया है लेकिन फिर भी उसे देखने नहीं जा पाया। घर पर आकर विजय से पूछ जरूर लेता था कि आदित्य की तबियत अब कैसी है? एक दिन जल्दी छुट्टी मिली तो घर आया, न जाने क्यों मुझे आदित्य की बहुत फिक्र हो रही थी। मन नहीं माना, मैं अपने घर से सीधा आदित्य के घर पहुँचा। आदित्य के कमरे में पहुँचा तो दंग रह गया। आदित्य का हमेशा खिला रहने वाला चेहरा आज मुरझाया हुआ था। वह सो रहा था। पास ही उसकी मम्मी दुखी होकर बैठी हुई थीं, मैंने पूछा “ अब कैसा है?” उन्होंने बस इतना ही कहा “दवाई का कोई असर ही नहीं हो रहा है। बुखार उतर जाता है फिर से हो जाता है, उस से खाना भी नही खाया जा रहा है, धीरे-धीर कमजोरी बढती ही जा रही है।” मैंने उनसे कहा कि आप इसके लिए कुछ खाने को ले आइए तब तक मैं इसके पास बैठता हूँ। वो वहाँ से चली गईं। मैंने आदित्य के माथे पर हाथ रखा तो बहुत गरम महसूस हुआ, मेरे हाथ रखने पर आदित्य ने अपनी आँखें खोली, उसके मुरझाये हुए चेहरे पर मुझे देखकर कुछ मुस्कुराहट आई।