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कहानी : मुझे कुछ कहना है…

Picture Credit: Nikunj Creation/QGraphy

रात के दस, साडे दस जैसे हि बजते हैं, दिल में अजब सी घबराहट होने लगती है। आज फिर एक छत के नीचे, एक ही कमरे में, और एक ही बिस्तर पर तुम मेरे पास रहोगी। तुम्हारी वो सारी उम्मीदें, वो चाहते, जो तुमने मुझसे लगायी है, मुझे सब पता हैं। मैं देखता हूँ तुम्हारी आँखों में मेरे लिये प्यार और बेबसी भी की मैं तुम्हे वही प्यार और अपनापन वापस नही दे पाता। आज तुम फिरसे उसी ख्यालों में सो जाओगी के तुम मे ऐसी कौनसी कमी है। और मैं अपनी उलझनो में की मैने कितना बड़ा धोका किया है तुम्हारे साथ।

मुझे आज भी याद है जब तुम्हें मैं देखने आने वाला था। हमेशा की तरह घर में बहुत हंगामा हुआ था। माँ का रो-रो कर बहुत बुरा हाल था। मैने मना जो करा था शादी के लिये। मैं बोल रहा था नही करनी है मुझे शादी-वादी। तुमसे भी पहले बहुत सारी लड़कियाँ दिखायी थी। पर कोई न कोई खामियां निकाल कर मना करते जा रहा था। पर जब ये बार-बार होने लगा तो घरवाले परेशान होने लगे। रोज़ के झगड़े होने लगे। उनके हर दिन वही सवाल सुनकर आखिर थक गया मैं। और बोल ही दिया, “नही करनी मुझे शादी, क्योंकी मैं गे हूँ

हाँ… मैं गे हूँ, एक समलैंगिक… जिसको सिर्फ लड़कों मे दिलचस्पी है। मुझे पता है तुम्हें बहुत गुस्सा आएगा ये जानकर। तुम शायद कभी मुझे माफ नही करोगी। पर मैं क्या करूँ ? जब से घरवालों को पता चला की मैं गे हूँ, घर में हर रोज़ रोना धोना और तमाशा देखा है मैने। ये गे-वे कुछ नही होता। ‘तुम कहाँ लडकी की तरह बर्ताव करते हो ? ये सिर्फ बहाने हैं तुम्हारे,’ और न जाने क्या कुछ। और फिर भी जब मैं अपनी बात पर अड़ा रहा तो इमोशनल ब्लैकमेलिंग शुरू हो गया। ‘समाज क्या कहेगा?’ ‘हमारे लिये कुछ फ़र्ज़ नही क्या तुम्हारा?’ ‘तुम्हे सिर्फ अपनी मनमानी करनी है’। बाबा, मौलवी से लेकर डॉक्टर तक सब जगह ले जाया गया मुझे। इन सब दिनो में मुझपर क्या बीती है बस्स्स्स…. सिर्फ मैं ही जानता हूँ। और जब पानी सर के उपर चढ़ गया, मैने घरावालों के सामने हाथ खड़े कर दिये… और बिना तुम्हे देखे, बात किये, हाँ कर दी।

घरवाले बहुत खुश थे, शायद उनकी वही आखरी ख्वाहिश बची थी, जो पूरी होने वाला थी। मैं कीस दौर से गुज़र रहा हूँ… मुझपर क्या बीत रही है इस बात की किसीको परवाह नही थी।

पर मुझे थी परवाह… वो भी तुम्हारी। सच कह रहा हूँ…. तुम्हे झूठ लगेगा शायद… पर सच में थी और आज भी है। एक लड़की अपना सब घरबार छोरकर नया घर बसाती है, वो भी सिर्फ एक इन्सान के भरोसे- “उसका पती”। मैं देखता था तुम्हारी बेबसी, समझता ता था तुम्हारे सपने। एक आम लड़की की तरह तुम्हारी भी कुछ चाहते थी। पर मैंने कभी उन चाहतो को पुरा नही करा। कैसे करता? मुझे वो कुछ फील ही नही होता है … मैं समझता था तुम्हारी उदासी पर मैं कुछ नही कर पाया। और तुमने भी कभी इस बात की शिकायत नही करी।

ओंकार भी ऐसा ही था….. उसने भी कभी किसी बात पर शिकायत नही करी। बहुत अच्छा था वो… बहुत प्यार था हम दोनो में… सारी उमर साथ रेहने का वादा था हमारा… पर शायद भगवान को ये भी मंज़ूर नही थ। छीन लिया उसे भी मुझसे। जैसे की मेरी ज़िन्दगी छीन ली हो।

मैंने अपनी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी गलती की है तुम्हें धोका देकर, और इसका दोषी सिर्फ मैं हूँ। पर मेरी इस गलती की सज़ा हम दोनो भुगत रहे हैं। मैंने तो ज़िन्दगी भर का प्यार ओंकार से पा लिया… और उसी भरोसे से ज़िंदा हूँ। पर तुम? मैं तुम्हें वो प्यार कभी नही दे सकता।

तुम एक अच्छी लड़की हो… अच्छी बहु हो.. और अच्छी बिवी भी हो। पर मैं ना अच्छा बेटा बन पाया न अच्छा पती। पर हाँ एक अच्छा दोस्त ज़रूर बनना चाहता हूँ।

अभी तो ये शुरुआत है। शायद मैं कभी तुमसे ये सारी बाते कह पाऊँ। ये सुनने के बाद मैं तुमसे उम्मीद भी नही करता के तुम आसानी से समझ जाओ, या मुझे माफ कर दो। पर बस एक बार खुद को मेरी जगह रख कर ज़रूर सोचना, इक दोस्त होने के नाते… तुमसे इतनी उम्मीद तो ज़रूर रख सकता हूँ। रख सकता हूँ ना ???

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