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कविता : जीओ और जीने दो

Picture Credit : Rajat Jain

क्यों कहा जाता है
ढलने को हमें, बदलने को हमें
कि लड़के हो तुम,
चलो लड़के की तरह !
रहो लड़के की तरह !!

ये है हमारी स्वेच्छा कि
हम किसी में भी ढलें,
कैसे भी चलें,
कैसे भी रहें
इसमें हमारे अतिरिक्त
किसी का कोई अधिकार नहीं
हम भी भारत के नागरिक हैं
निजता का अधिकार है हमारा भी

हम रंगे पलकें, नाखून, होंठ, बाल या गाल
ये हमारी मर्जी है, तुम्हारी नहीं !
यह अमिट सत्य है कि
हमने, तुम्हारे अधिकारों में
नहीं किया है हस्तक्षेप कभी भी
तो तुम्हारा भी हमारे निर्णय लेने का कोई अधिकार नहीं

माना कि तुमसे अलग है
लैंगिकता हमारी
तुम्हें इससे नहीं होना चाहिए कोई एतराज़ !
आंकना हो तो आंकों हमें
हमारी कला-कौशल पर
जीतेंगे हम भी

प्रेम, प्रेम होता है
यह मान लो तुम भी
हमसे घृणा करके क्या मिलेगा तुम्हें ?
हम अपने में
तो कभी अपनों से
कभी शिक्षण संस्थानों में, कभी कार्यक्षेत्र में,
तो कभी मार्ग में
सुनते हैं बुरा-बुरा बेवजह
और पाते हैं घृणा
तुम तो इज्ज़त दो
समझदार हो सभी !

मत करो घृणा
मत देखो तृष्णा से
प्रेम, प्रेम होता है
चाहो तो करो
न चाहो तो मत करो
मगर मत करो अपमान,

मत करो अपमान
मत करो बेवजह घृणा
मत करो !!!
तुम स्वयं भी आनंद से जीओ
और हमें भी जीने दो।

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