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कविता: समलैंगिक इश्क़ की मंज़िल जुदाई है

Picture credit: Raj Pandey / Qgraphy

कहीं मजबूरी तो कहीं बेहिसाब बेवफ़ाई है, समलैंगिक इश्क़ की आखिरी मंज़िल जुदाई है…
कभी अपनो से लड़ना कभी दुनिया से झगड़ना, जब तक सांस है तब तक समलैंगिको की लड़ाई है…
मुझे पता है तुम भी मुझे चाहते हो, डरते हो मुझे खोने से, मगर नसीबों के आगे आशिकों की कँहा चल पायी है…!

हम दोनो एक दूजे के लिए बने ये वहम भी दूर हो गया हमारा, क्यूंकि हमारी तक़दीरें जुदा है तभी अगले साल उसकी सगाई है…
एक-दूजे के साथ ख़्वाब सजा रखे थे हमने, ये न जान पाये समलैंगिको के जीवन में बस तन्हाई है…
मेरी माँग का सिन्दूर किसी और का सपना हो जायेगा, शायद मेरी माँग ही अपनी किस्मत सूनी लिखा के लाई है…

वो भी तो मजबूर है उसके मथ्थे इल्जाम न दूँ, उसके जैसी मोहब्बत सबने कहाँ निभाई है…
काश मैं एक लड़की होता शायद तेरा हो जाता, लड़का हूँ और लड़के से प्यार किया यही तो लड़ाई है…
क्यों हमें ही नीचा दिखाया जाता हमें अलग कर दिया जाता है, ये समाज़ को हमारी हालात पर रत्ती भर दया नही आई है…

कितना ही चाह लो एक-दूजे को तो क्या, भई समलैंगिक हो आखिर में जुदाई है…
दोनो का हाल बूरा था दोनो की आँखे भर गई, अजनबी से लग रहे थे जब से घरवालो ने कहीं शादी की बात चलाई है…
छोड़ चुके वो संघर्ष की आखिरी लड़ाई भी, समझ चुके हैं समलैंगिक इश्क़ में जुदाई है।

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