राजनैतिक समर्थन, समलैंगिकता और राष्ट्रप्रेम

राजनैतिक समर्थन, समलैंगिकता और राष्ट्रप्रेम

राजनैतिक समर्थन, समलैंगिकता और राष्ट्रप्रेम। तस्वीर: बृजेश सुकुमारन।

८ दिसंबर २०१३ से १६ मई २०१४, यह दौर भारतीय राजनीति और भारत में समलैंगिकों के अधिकारों के आंदोलन, इन दोनों के लिए अत्यंत बदलावपूर्ण रहा है। इसी दौर मेरा राजनीति, समाज और विचारधाराओं के तरफ देखने का दृष्टिकोण भी बदला है। ८ दिसंबर २०१३ को दिल्ली के विधान सभा चुनावों के परिणाम घोषित हुए। एक नया राजनैतिक दल सत्ता में आया। ये दल था आम आदमी पार्टी। यह दल मुझे पसंद आने लगा। इस दल के आदर्शवाद ने मुझे उसकी तरफ आकर्षित किया। आम आदमी पार्टी की दिल्ली में सरकार बनने के बाद क्या हुआ वह इतिहासगवाह है और वो इस लेख का विषय भी नहीं है। मैं और हम में से कई लोग इस पार्टी को समर्थन देने लगे जब भारतीय जनता पार्टी ने हमे “धोका” दिया।

एक बहुत बड़ा बदलाव तब आया जब ११ दिसंबर २०१३ को सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में भारतीय दंड संहिता की धरा ३७७ को संवैधानिक ठहराया। यह निर्णय भारत के समलिंगी और तृतीयपंथी समुदाय के लिए अत्यंत धक्कादायक था। इस निर्णय ने समलिंगी शारीरिक संबंधों को फिरसे कानूनन अपराध बना दिया। मानव अधिकारों के खिलाफ था यह निर्णय। इस निर्णय के कारण एक मंथन की शुरुआत हुई। जहां कांग्रेस, वाम दल जैसी पार्टियों ने समलैंगिकों के अधिकारों का समर्थन करते हुए इस निर्णय का विरोध किया, वहीँ भाजपा के कई नेता इस निर्णय के बारे में शांत रहे (जैसे मोदी)। कुछ नेताओं ने इस निर्णय का स्वागत किया (राजनाथ सिंह), कुछ नेता और पार्टी प्रवक्ता इस क़ानून का स्पष्टीकरण देने लगे (मिनाक्षी लेखी) और कुछ नेता समलिंगी समुदाय को शांत करने की कोशिश करने लगे (अरुण जेटली)।

इस मंथन का यह परिणाम हुआ की मुझ जैसे भाजपा समर्थकों ने भाजपा से नाराज हो कर भाजपा का समर्थक होना छोड़ दिया। मुझे वैसे भी मोदी जी इतने पसंद नहीं आए। अतः समर्थन पीछे लेने के निर्णय से मुझे कोई दुःख नहीं हुआ। मेरे लिए भाजपा अब मोदी भक्त पार्टी बन चुकी थी।

एक तरफ जहाँ मुझ जैसे लोग अपनी राजनैतिक पसंदों को बदलने लगे, वहीँ इस निर्णय का विरोध करने के लिए समलिंगी और तृतीयपंथी समाज ने अनेक शहरों में विरोध प्रदर्शनों का आयोजन किया। मैं भी एक ऐसे ही एक विरोध प्रदर्शन का हिस्सा था जो मुंबई के महेश्वरी उद्यान में आयोजित किया गया था। वो काले कपडे, मोमबत्तियां, इन्द्रधनुष के रंगों वाले झंडे, मीडिया और हस्तियां। सभी इस विरोध का हिस्सा थे। अब तक आप सोच रहे होंगे की मैं इन घटनाओं का ब्यौरा क्यों दे रहा हूँ। जो बात में आप के सामने रखना चाहता हूँ, उसकी नीव रख रहा हूँ।

इसी विरोध प्रदर्शन में कई संस्थाओं से लोग मौजूद थे। ये लोग हमे उनकी संस्थाओं के पत्रक पकड़ाए जा रहे थे। इन्ही में से एक पत्रक डॉ. जयप्रकाश नारायण की लोकसत्ता पार्टी का था। उस में लिखा था की लोकसत्ता पार्टी समलैंगिकों के अधिकारों का समर्थन करती है और सर्वोच्च न्यायलय के इस निर्णय का विरोध करती है। लोकसत्ता पार्टी ने गूगल पर इसी विषय में एक हैंग-आउट का भी आयोजन किया था जहां खुद डॉ नारायण ने इस निर्णय के बारे में बात की थी और आगे क्या किया जा सकता है इस पर भी चर्चा की। देखा जाए तो इस पार्टी ने आम आदमी पार्टी से बहुत पहले ही समलिंगी समुदाय से एक संवाद साधा।

यह बात दिलचस्प है क्यूंकि लोकसत्ता पार्टी ने नरेंद्र मोदी और एनडीए को राष्ट्रीय हित में समर्थन देने का फैसला किया। क्या इस समर्थन के कारण पार्टी का समलैंगिकों के अधिकारों के प्रति समर्थन कम हुआ है? बिलकुल नहीं। मैं लोकसत्ता पार्टी के बारे में क्यों बात कर रहा हूँ? हाल ही में हुए लोकसभा चुनावों में इस पार्टी ने एक ही निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लढा (मलकजगिरी) और वह भी हार गई। जो बात में आपके सामने रखना चाहता हूँ वो यह है कि भाजपा या मोदी जी को समर्थन देने के कारण किसी व्यक्ति या संस्था का समलैंगिकों के अधिकारों के प्रति समर्थन कमजोर या कम नहीं हो जाता। मैं खुद अब भाजपा या मोदी जी को समर्थन नहीं करता परन्तु मुझे यह बात पसंद नहीं की भाजपा के समलैंगिक समर्थकों को अन्य समलैंगिकों का विरोध सहना पड़ता है। यह विरोध कभी कभी बदमाशी और गाली-गलौच का भी रूप धारण कर लेता है। भाजपा के समलैंगिक समर्थकों की तुलना नाझी पार्टी के यहूदी समर्थकों से की जाती है। भाजपा के मुस्लिम समर्थक तो ऐसे विरोध का सामना करते ही हैं।

लैंगिक या धार्मिक अल्पसंख्यकों का मोदी जी को समर्थन को समर्थन देना क्या गुनाह है? मान लेते हैं की भाजपा धरा ३७७ के प्रति अपने विचारों के प्रति दृढ़ है और समलैंगिकों के अधिकारों का कभी भी समर्थन नहीं करेगी। फिर भी, एक अच्छे आर्थिक भविष्य के लिए भाजपा को वोट देना क्या इतनी बुरी बात है? क्या समलैंगिकों के अधिकारों का समर्थन करने वाले भिन्नलैंगिकों ने मोदी जी को समर्थन देके समलैंगिकों को धोका दिया है? मुझे नहीं लगता।

मैं एक सादृश्य देना चाहूंगा। आप एक ऐसे परिवार में रहते हैं जिसके सदस्यों के विचार रूढ़िवादी हैं और जो समलैंगिकों का विरोध करते हैं। आप के पास पर्याय हैं। या तो आप अपने परिवार के साथ रह कर उसके सदस्यों का मन बदलने की कोशिश कर सकते हैं, अपनी लैंगिकता को छुपा कर रख सकते हैं या घर छोड़ के जा सकते हैं। हर पर्याय के अपने लाभ और नुक्सान हैं। अपने घर में रहने से आपको सुरक्षा और स्थिरता का एहसास तो होगा परन्तु उतना स्वातंत्र्य नहीं मिलेगा। परिवार से अलग रह कर आप को स्वातंत्र्य तो मिल जाएगा परन्तु सुरक्षा, और स्थिरता के लिए शायद आपको लड़ना पड़े। कुछ लोगों के लिए अपने परिवार के साथ रहना ही सही लगेगा और कुछ लोग घर छोड़ना पसंद करेंगे। एक आदर्श परिस्थिति ऐसी होगी जहां आपको अपना व्यक्ति स्वातंत्र्य अपने परिवार के साथ रह कर मिल जाए और सुरक्षा और स्थिरता घर के बाहर भी मिल जाए। परन्तु यह स्थिति आज के वक़्त में सब को मिलना बहुत मुश्किल हो गया है। शायद यह सादृश्य यहूदी-नाझी सादृश्य से ज्यादा सुलभ और सही लगे।

दूसरी और मैं “देश पहले, लैंगिकता बाद में”, इस विचारधारा से भी सहमत नहीं हूँ जो भाजपा समर्थक अपने समर्थन का कारण देते वक्त अपनाते हैं। इसके तीन कारण हैं :

१. आप भी इस देश के नागरिक हैं और आपके अधिकार भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं।

२. इस विचारधारा से ऐसा एहसास कराने की कोशिश होती है की जो भाजपा का समर्थन नहीं करते वो देश के बारे में नहीं सोच रहे।

३. इस विचारधारा का ये भी आधार है की सिर्फ मोदी जी ही देश को आगे ले जा सकते हैं। वक़्त ही बताएगा की यह बात कितनी सही है।

लोग अलग-अलग पार्टियों का समर्थन अलग-अलग कारणों की वजह से करते हैं। अगर आप मोदी जी की पार्टी का समर्थन आर्थिक विकास की लिए कर रहे हैं, तो कुछ लोग आम आदमी पार्टी का समर्थन स्वराज जैसे मुद्दों पर कर रहे हैं। क्या आप यह कहना चाहते हैं की केरल के लोग, जिन्होंने एक भी एनडीए प्रत्याशी को लोकसभा के लिए नहीं चुना, वो सब राष्ट्र के बारे में नहीं सोच रहे? ऐसा कैसे हो सकता है! अगर विकास के मुद्दे पे भाजपा को अपना मत देना सही है, तो आम आदमी पार्टी या कांग्रेस को समलैंगिकों के अधिकारों के मुद्दे पे मत देना भी उतना ही सही है।

मेरे हिसाब से दोनों विचारधाराएँ उतनी ही सही हैं और किसी भी समलैंगिक का उसकी किसी एक पार्टी या दल को समर्थन देने के कारण विरोध करने की जरुरत नहीं। मैंने बहुत बार फेसबुक पे राजनैतिक दल और उनके समलैंगिकों के अधिकारों के समर्थन या विरोध के बारे में वाद-विवाद होते हुए देखा है। ऐसी चर्चाओं का यह फायदा होता है की एक दूसरे की विरोधी राजनैतिक विचारधाराओं के बारे में पता चलता है परन्तु अंत में सब अपनी पार्टी के प्रवक्ता जैसे अपनी पार्टी के पक्ष में बोलना शुरू कर देते हैं और इससे कुछ प्राप्त नहीं होता। मुझे तो ऐसा आभास होता है की मैं अर्णब गोस्वामी के कार्यक्रम को देख रहा हूँ जहां सब ऊँची आवाज में चिल्लाते हैं परन्तु कौन क्या कहना चाहता है इसका कभी कभी अंत तक पता नहीं चलता। राजनैतिक वाद-विवाद फायदेमंद साबित हो सकता है यदि आप विरोधी विचारधारा को समझने का प्रयत्न करें।

सर्वोच्च न्यायलय के निर्णय के बाद आगे बढ़ने का रास्ता यही है की विभिन्न पार्टियों की समर्थक अपनी पार्टी की सदस्यों और नेताओं के साथ अपने अधिकारों के विषय में संवाद साधे जैसा की आम आदमी पार्टी के साथ हुआ था जब पार्टी ने अपने घोषणा पत्र में वादा करने के बाद भी समलैंगिकों के अधिकार और धरा ३७७ को हटाने या संशोधन करने की बात नहीं की थी। भाजपा अभी तक समलैंगिकों के अधिकारों को समर्थन देने या उनके बारें में चर्चा करने से परहेज कर रही है। शायद भविष्य में भाजपा अपना मन बदल दे! परन्तु ऐसा होने के लिए भाजपा के नेताओं को मनाना, उनके साथ संवाद साधना जरुरी है। आशा और अनुनय से ही आगे बढ़ा जा सकता है, घृणा और भय से नहीं।

जहां तक मेरा सवाल है, मैं मोदी भक्ति का विरोध करता रहूँगा। लेकिन अब जब चुनाव ख़त्म हो चुके हैं, हमे एक दूसरे की राजनैतिक पसंद और नापसंद के बारे में अति आलोचनात्मक होना बंद कर देना चाहिए। अंत में मोदी सरकार के कारण जो भी होगा, उसका हम सब पर समान असर होगा। इसलिए अब एक दूसरे की राजनैतिक विचारधाराओं से आगे बढ़ कर साथ में चलने में ही समलैंगिक और तृतीयपंथी समाज की भलाई है।