मेरी कहानी मेरी ज़बानी : धनञ्जय चौहान

धनञ्जय चौहान

धनञ्जय चौहान

मैं , धनञ्जय चौहान, एक अति माध्यम वर्ग परिवार से हूँ जहाँ पर सेक्स के विषय पर बात करना तो दूर की बात है सुन भी नहीं सकते थे। मेरा जन्म देव भूमि उत्तराखंड के पौड़ी जनपद में सन १९७० में हुआ। मेरे परिवार में खुशियों का माहौल था एक तो परिवार में बेटे का जन्म हुआ दूसरा मेरे पिता जी को पंजाब विश्वविद्यालय में सरकारी नौकरी मिली। मेरे जन्म के कुछ माह के बाद ही मेरे पिता जी मेरी माता जी और मुझे हमेशा के लिए चंडीगढ़ ले आये जहाँ पर मेरा आगे का पालन-पोषण हुआ। जब मैं ५ साल का हुआ तो मेरा एक सरकारी स्कूल में दाखिला करवा दिया गया। मेरे स्कूल की पढ़ाई लिखाई चंडीगढ़ में एक सामान्य स्कूल में हुई। स्कूल में मैं पढ़ने में अच्छा विद्यार्थी था। सब कुछ सामान्य चल रहा था।

मुझे थोड़ा सा अभी भी याद है कि जब मैं ५-६ साल का था तो मेरे घर में किसी का विवाह होना था। तैयारियाँ जोरों पर थी। खूब खरीदारी हो रही थी। सब के लिए कपड़े ख़रीदे जा रहे थे। मेरे लिए भी पैंट-कमीज खरीदी गयी। लेकिन जब वह मुझे दिखाई गयी तो मैंने पहली ही नजर में उसको नकार दिया और पहनने से मना कर दिया। मैंने कहा कि मुझे तो लड़कियों वाली फ्रॉक चाहिए। मेरे माता पिता ने मुझे समझाया की तुम तो एक लड़के हो और लड़के फ्रॉक नहीं पहनते। मैंने उनकी एक भी बात नहीं सुनी। मैं अपनी बात पर अड़ा रहा। थक हार के वो लोग मेरे लिए फ्रॉक ले कर आये। ये तो एक पहली घटना थी जो कि मुझे अभी तक याद है। उसके बाद ये सिलसिला यूँ ही चलता रहा। मैं अपनी बचपन की जिंदगी में ब्यस्त था और जीवन को जी रहा था।

मेरे कई नए दोस्त इस दौरान बनते रहे जिसमे लड़कियों की संख्या ज्यादा थी। लेकिन ऐसा नहीं कि मैंने जान-बूझ कर लड़कियों से मित्रता की हो। वो एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी। लड़कियाँ मेरी भावनाओं को अच्छे से समझती थी और उनकी पसंद मेरी पसंद से मिलती-जुलती थी। लड़कियाँ जो खेल खेलती थी वो मुझे भी पसंद थेयाँ लड़के हॉकी या फूटबाल खेलते थे जो कि मुझे ज्यादा पसंद नहीं थे। कभी-कभार मैं हॉकी खेल लेता था तो लड़के मुझे कहते थे की ये तुम्हारे बस की बात नहीं तुम सिर्फ लड़कियों के साथ ही खेलो। तुम्हारा शरीर लड़कों के खेल खेलने लायक नहीं बना। मुझे वैसे भी लड़कों के साथ खेलने में शर्म ही आती थी। मेरे परिवार ने मेरा पालन-पोषण मेरे भाई-बहन जैसा ही किया। मेरे साथ कभी लड़कियों जैसा व्यवहार नहीं किया गया। लेकिन फिर भी मैं खुद ही अपनी माता जी के साथ घर के काम करवाने में मदद करता रहता था। मैं अपनी माता जी के साथ घर का हर वह काम करता था जो वो करती थी। मेरे घर के लोग और पडोसी लोग भी मेरे इस व्यवहार से बहुत खुश होते थे क्योंकि उनके लड़के सारा दिन बहार आवारागर्दी करते थे। वे पढ़ते भी नहीं थे। लेकिन मैं घर के काम के अलावा पढ़ाई भी करता रहता था।

जब मैं ९ -१० साल का हुआ तो मेरे एक पड़ोस में रहने वाला लड़के से दोस्ती हो गयी। हम दोनों की काफी अच्छी निभने लगी। हम दोनों की पसंद नापसंद लगभग एक जैसी थी। हालाँकि वह मेरे से ४-५ साल बड़ा था और वह मेरा ख्याल भी काफी रखता था। धीरे-धीरे हम दोनों एक दूसरे को प्यार करने लगे। लेकिन मुझे नहीं पता था कि यह कौन प्यार था। लेकिन हम एक दूसरे को काफी पसंद करने लगे थे। यह दोस्ती सामान्य दोस्ती से अलग होती जा रही थी। हम एक दूसरे के बिना रह नहीं पा रहे थे।

हालाँकि इस प्यार और दोस्ती में सेक्स का इतना दखल नहीं था फिर भी मुझे उसके साथ मिलना जुलना, साथ रहना और एक साथ सोना पसंद था। मैं घंटो उसका इंतज़ार करता रहता था। जब मैं 12 साल का हो गया तो मेरे शरीर में स्वाभाविक बदलाव आने शुरू हो गए और मेरे मन की भावनाओं में प्यार का प्रचंड उफान आना शुरू हो गया। अब यह प्यार कुछ अलग रंग लेने जा रहा था। दिल और दिमाग वाला प्यार कब शारीरिक प्यार में बदल गया कुछ पता ही नहीं चला। यह सिलसिला मेरे १८-१९ साल की उम्र तक चलता रहा। और इसी दौरान मेरे दोस्त की शादी हो गयी। वह अपने वैवाहिक जीवन में व्यस्त हो गया और उसने अब मेरी तरफ ध्यान देना कम कर दिया।

जो इंसान मुझे घंटों प्यार करता था वह अब मुझे यह समझाता फिरता था कि यह सब ठीक नहीं है और अब हम लोग बड़े हो गए हैं अब हमें अपने जीवन के बारे में सोचना चाहिए। उसने कहा कि उसकी तो शादी हो गयी है। अब वह मेरे लिए समय नहीं दे पायेगा और इस बात का किसी को पता चल गया तो उसका पारिवारिक जीवन खत्म हो सकता है। मैं इस बात को ले कर काफी परेशान रहने लगा था। काफी मुश्किल के बाद मैंने अपने आप को समझाया और अपनी पढ़ाई में ध्यान देने लगा। मैं जब बी.ए. कर रहा था तो मेरे परिवार ने मेरे ऊपर शादी का दवाब बनाना शुरू कर दिया था।

पहले पहल तो मैंने शादी करने से मना कर दिया। लेकिन बहुत दबाब के कारण और मेरे एक विचार ने जिसमे मैं सोचता था कि मुझे लड़कों की तरफ आकर्षण है हो सकता है कि मेरी शादी करने के बाद वह आकर्षण औरतों की तरफ होना शुरू हो जाये मैंने शादी करना स्वीकार कर लिया। मेरी शादी मेरे B.A के अंतिम वर्ष में हो गयी थी। कुछ सालों तक मैं अपने वैवाहिक जीवन में व्यस्त रहा। ग्रेजुएशन करने के बाद १९९३ में मैं पंजाब विश्वविद्यालय में लिपिक की नौकरी करने लगा और इस दौरान मेरे दो बच्चे एक लड़का और एक लड़की हो गए। १९९८ तक यह सिलसिला चलता रहा। पारिवारिक जिम्मेदारियों के बीच मुझे खुद अपने बारे में सोचने का मौक़ा ही नहीं मिला।

लेकिन मेरे जीवन का एक ऐसा मोड़ आया जिसने सब कुछ बदल कर रख दिया। यह एक तूफ़ान था जिसने मेरी जिंदगी को तहस नहस कर दिया। अप्रैल १९९८ में पंजाब विश्वविद्यालय में एक प्रश्न पत्र लीक आउट हो गया जिसमे संबंधित विभागों के सभी कर्मचारियों से पूछताछ हुई लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला। उसके बाद पंजाब विश्वविद्यालय ने यह केस सी.बी.आई. को सौंप दिया। १९९८ से लेकर जून २००० तक सी.बी.आई. को इसमें कोई सुराग नहीं मिला। लेकिन अचानक इस केस नें राजनैतिक मोड़ ले लिया। बिना सोचे-समझे अधिकारीयों की धरपकड़ शुरू हो गयी। काफी अधिकारीयों और विद्यार्थियों को नाजायज़ तरीक़े से पकड़ कर पीटा गया। उनसे जबरन हस्ताक्षर करवाये गए। जिसमे उनसे पेपर लीक करवाने को जबरन मनवाया गया। मुझे भी जबरन पकड़ा गया और मेरे साथ भी वही बुरा व्यवहार हुआ।

इसी दौरान सी.बी.आई. के अधिकारी को पता चला की मैं समलैंगिक हूँ। तो मेरे साथ तो उससे भी ज्यादा बुरा सलूक किया गया। उनको जैसे जादू की छड़ी मिल गयी हो। मुझे ब्लैकमेल किया गया। मेरे साथ सेक्सुअल बदसलूकी हुई। मेरे साथ कई लोगों ने यौन गतिविधि की। उसमे मेरे शरीर के अंदरूनी भाग को नुक्सान हुआ, जो कि आगे चल कर मेरी यौन रोग का कारण बना। मुझे और मेरे परिवार को ब्लैकमेल किया गया। मेरे से उन लोगों ने एक पहले टाइप किये हुए पेपर पर हस्ताक्षर करवाये। जिसके आधार पर मुझे १२ जून २००० को जेल भेज दिया गया। मेरा बस इतना कसूर था की मैं समलैंगिक था। मैं उनके लिए काम का आदमी था जिसे वह अपनी मर्जी से प्रयोग कर सकते थे। मेरे से उन लोगों ने जबरदस्ती हस्ताक्षर करवा कर एक उच्च अधिकारी को गलत तरीके से पकड़वा लिया जो की सरासर गलत था। उन लोगों ने मेरा मेडिकल भी नहीं कराया।

मैं जेल ८ महीने रहा। मेरे साथ कुछ और अधिकारी और विद्यार्थी भी थे। सभी के सभी बेक़सूर थे क्योंकि जिन लोगों ने पेपर लीक किया था वह लोग पकड़े ही नहीं गए थे। उसके बाद भी पेपर लीक होते रहे। यह सब राजनीति थी क्योंकि एक उच्च अधिकारी की पदोन्नति रोकने के लिए यह सब जाल बुना गया था। इस चक्की में घुन भी पीस गए। जनवरी २००१ में हम सभी सुप्रीम कोर्ट तक बेल के लिए गुहार लगाने के बाद रिहा हुए। वह केस १६ साल बाद भी अभी तक कोर्ट में विचाराधीन है। इस केस ने मुझे और मेरे परिवार को अंदर तक हिला दिया था। लेकिन मेरे परिवार ने मेरा साथ नहीं छोड़ा। सब लोग मेरे साथ डट कर खड़े रहे।

२००१ के बाद मैं बेरोजगार हो गया था। और सी.बी.आई. हिरासत में मेरे साथ हुए यौन उत्पीड़न के कारण मुझे यौन रोग हो गया था। उसके लक्षण अब नजर आने लगे थे। उसका मैंने सरकारी हस्पताल में इलाज करवाया। यौन रोग के इलाज के दौरान मेरे साथ काफी दुर्व्यवहार भी हुआ क्योंकि मैं एक समलैंगिक था और ऊपर से मुझे यौन रोग हो गया था। इसी दौरान मेरी यौन रोग जाँच रिपोर्ट मेरे ही एक पास में रहने वाले जानकार ने लीक आउट कर दी थी। वह जानकार सरकारी हस्पताल में कर्मचारी था। उसने मेरे दोस्तों और जानकार लोगों को मेरे यौन रोगी होने की खबर बता दी। वह खबर आगे चलते-चलते कब यौन रोग से एच.आई.व्ही. में बदल गयी पता नहीं चला। जब की मैं एच.आई.व्ही. पॉजिटिव नहीं था।

मुझे काफी बदनामी और दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ा। हर जगह मुझे भेदभाव सहन करना पड़ता था। मैं हर इंसान को जा-जा कर नहीं बता सकता था की मैं पॉजिटिव नहीं हूँ। जब यह बात सहन से बहार हो गयी तो मैंने इसकी जानकारी हस्पताल के उच्च अधिकारी को दी। उसने तुरंत कारवाही करते हुए उसी व्यक्ति को बुलाया जिसने मेरी रिपोर्ट लीक आउट की थी। उसको बताया गया की उसको तुरंत बर्खास्त किया जा रहा है। तो वह अपनी नौकरी और परिवार के लिए गिड़गिड़ाया। फिर मैंने ही बीच बचाव करते हुए उसको माफ़ कर दिया और उसको आगे से ऐसा न करने को कहा। मेरे जीवन का यह एक बहुत बड़ा सबक था।

मैंने अब सोचना शुरू कर दिया था कि इस तरह की घटनाएँ तो मेरे साथ होती ही रहेंगी। मैंने अब एक निर्णय लिया कि अब मुझे खुद खड़ा होना पड़ेगा और समाज में इस तरह की सोच को बदलने के लिए मुझे लड़ना पड़ेगा। लेकिन इसके लिए मुझे समाज में अपनी आवाज़ उठाने के साथ साथ यह भी गर्व से कहना होगा की मैं एक समलैंगिक हूँ और इसमें कोई बुराई नहीं। यह मेरा व्यक्तिगत मामला है कि मैं किसको पसंद करूँ और किसके साथ अपना जीवन व्यतीत करूँ। चूँकि मेरी शादी हो चुकी थी तो मैं अभी अपनी पत्नी को तलाक देने के हक़ में नहीं था। क्योंकि इसमें उसका कोई कसूर नहीं था और उसने मेरा हर सुख और दुःख में साथ दिया था।

लेकिन मैं आने वाली पीढ़ी के लिए कुछ कर सकता था। सबसे पहले मैंने अपने परिवार को इसके लिए तैयार करना शुरू कर दिया। क्योंकि मैंने सोचा की समाज को बताने से पहले अपने परिवार की सोच को ही बदला जाये ताकि उनके पास बाहर से खबर आने से पहले ही उनको इस विषय पर पता रहे और वो इसका जवाब सकारात्मक तरीके से दे सकें। मैंने सबसे पहले अपनी पत्नी को समझाना शुरू किया और उसको इस विषय पर धार्मिक तरीके से बताना शुरू किया। चूँकि मेरी पत्नी धार्मिक थी तो मैंने उसको इसी तरीके से समझाना शुरू किया ताकि उसको अच्छे से समलैंगिकता के विषय पर समझ आ जाये।

हम लोग एक-दो दिन में सोने से पहले इस विषय पर चर्चा शुरू कर देते थे। यहाँ चर्चा वेद पुराण और उपनिषद तक चली जाती थी। मैं उसको हर पहलू से समझने की कोशिश करता रहता था यह प्रक्रिया काफी वर्षों तक चली। इसी बीच मैंने समाज के लिए काम भी करना शुरू कर दिया था। मैंने अपने ही समलैंगिक समाज के लोगों से उसके दुःख तकलीफ के बारे में जानना शुरू किया और उनको यौन रोगों के बारे में जानकारी देनी शुरू कर दी थी। जिसको भी कभी यौन रोग होता था तो मैं उनको ले कर सरकारी हस्पताल में ले कर चला जाता था। वहाँ पर उनका उपचार करवाता था। इस दौरान हम सब के साथ काफी भेदभाव भी होता था।

लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी और अपने काम में लगा रहा। धीरे-धीरे मेरी पहचान सब जगह बनती गयी। मैं दिन रात अपने समुदाय की भलाई के लिए सोचता रहता था कि कैसे मैं इन सब को बिना भेदबाव के उपचार करवाऊँ। कैसे हम सब के लिए समान अधिकार बने क्योंकि भारत में समलैंगिकता को एक अपराध के तौर पर देखा जाता था और भारत में यह एक अपराध की श्रेणी में आता है। यह अभी भी सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है और सारे देश में बहस का विषय बना हुआ है। २००२ से २००९ तक मेरे साथ काफी दुर्व्यवहार और भेदभाव भी हुआ। इसी दौरान २००४ में मुझे एक निजी स्कूल में अध्यापक की नौकरी मिल गयी थी। और साथ-साथ में संध्या को अपने समुदाय के लोगों को मिलता रहता था। उनके दुःख तकलीफों के बारे में जनता रहता था। किसी को मेरी मदद की जरूरत होती थी तो मैं नौकरी से अवकाश ले कर उनकी मदद के लिए जाता रहता था।

२००९ तक मैं अपने समुदाय में काफी प्रसिद्ध हो गया था। लोग मेरे ऊपर विश्वास करने लगे थे। मेरी सब के बीच एक पहचान बनने लगी थी। फिर मैंने और मेरे एक और मित्र इस्लामुद्दीन ने काफी वर्ष के सोच विचार के बाद एक सामुदायिक संस्था का निर्माण करके पंजीकृत करवाया। इस्लामुद्दीन भी मेरी तरह मेहनती इंसान है। उसने कॉमर्स में स्नातक तक पढ़ाई की है। उसको भी उसके भाईओं ने उसकी समलैंगिकता के कारण घर से निकल दिया था। उसके पास रहने को घर नहीं था, खाने को खाना नहीं था, पहनने को कपडे नहीं थे। लेकिन मैंने उसको हर तरह की मदद की और आज वह अपने पाँव पर खड़ा हो कर खुद का पालन पोषण कर रहा है। उसने मेरा बहुत साथ दिया है।

साथ-साथ में मैं अपने परिवार को समलैंगिक विषय पर समझाता रहता था काफी वर्षों की काउन्सलिंग के बाद मेरी पत्नी को इस विषय पर समझ आ गयी थी। मैंने मौका देख कर अपने बारे में उसको बता दिया। जिसको उसने बड़े ही सहजभाव से स्वीकार कर लिया था। उसने कहा, “मुझे इंसान के रूप में देवता मिला है। मुझे ऐसा इंसान मिला है जो सच के रास्ते पर चल कर समाज के लिए काम कर रहा है, और आने वाली पीढ़ी के लिए काम कर रहा है। मुझे तथाकथित मर्द नहीं एक अच्छा इंसान चाहिए था वो मुझे मिल गया।” वह दिन मेरे लिए बहुत खुशियों वाला दिन था क्योंकि मैंने एक जंग जीत ली थी और अब मैं और अच्छे से और खुल कर समाज के लिए काम कर सकता था। मैंने अब खुल कर दुनिया के सामने आकर काम करना शुरू कर दिया। अब मुझे यह डर नहीं था कि कोई मेरे परिवार को मेरे बारे में बता देगा। उनका मस्तिष्क अब शर्म से नहीं झुकेगा। क्योंकि अब वह इसके जवाब के लिए तयार थे।

मैंने २००९ में स्कूल में अध्यापक की नौकरी छोड़ दी और अब मैंने खुल कर अपने समाज के मानव अधिकारों के साथ-साथ उनके स्वास्थ्य लिए काम करना शुरू कर दिया था। मैंने एक समाजसेवी संस्था के साथ समलैंगिकों के स्वास्थ्य के लिए काम करना शुरू कर दिया था। और साथ-साथ अपनी संस्था ‘सक्षम ट्रस्ट’ के लिए भी काम करता रहता था। चूँकि हमारे पास धन का आभाव था तो भी हमने अपनी जेब से छोटा-मोटा खर्च करना शुरू कर दिया। लेकिन हमें धन से ज्यादा भरी मात्रा में जन समर्थन मिलना शुरू हो गया था। और धीरे-धीरे हम लोग चंडीगढ़, पंचकुला और मोहाली के अलावा हरियाणा और पंजाब में भी समुदाय के लोगों की मदद करने लगे थे।

मेरा एक सपना था कि भारत के दूसरे शहरों की तरह चंडीगढ़ में भी गर्व उत्सव मनाया जाये ताकि लोगों को पता चल सके कि हम लोग भी इस समाज में उनके साथ रहते हैं और हमारे साथ भेदभाव न किया जाये। इसके लिए मैंने गंभीरता से सोचना शुरू कर दिया था और कुछ मित्रों की मदद से मैंने इसके लिए प्लान कर दिया और हम लोगों ने १५ मार्च २०१३ को गर्व उत्सव मानाने की सोची। लेकिन हमारे आगे काफी चुनौतियाँ थी। पहला तो हमारे पास धन का अभाव था। कोई भी कंपनी धन देने को तैयार नहीं हुई और न ही किसी भी समुदाय के सदस्य ने धन दिया। अंत में मुझे ही अपनी जेब से लगभग एक लाख रूपए खर्च करने पड़े।

दूसरा प्रशासन की और से अनुमति की जरूरत थी जो की बहुत ही मुश्किल काम था। मैं अकेला ही एक माह तक सरकारी कार्यालय के चक्कर काटता रहा। बहुत भाग दौड़ के बाद अंतिम क्षण में अनुमति मिली वह भी ध्वनि करने की अनुमति और मंच लगाने की अनुमति नहीं मिली। फिर मैंने काफी भाग दौड़ काने के बाद ध्वनि करने की अनुमति तो ले ली थी। परन्तु मंच लगाने की अनुमति नहीं मिली क्योंकि तब तक सरकारी कार्यालय बंद चुके थे। फिर मैं उच्च अधिकारी और स्थानीय नेता से मिला उनसे बहुत अनुरोध करने के बाद उन्होंने मंच की बिना फीस जमा करवाये ही अनुमति दे दी।

चूँकि फीस मंच स्थल के प्रयोग करने की फीस होती है और फीस जमा करवाने की अवधि ५ बजे तक की होती है। तब तक कार्यालय बंद हो गए थे फिर भी उच्च अधिकारी ने मेरे व्यक्तिगत विश्वास पर अनुमति दे दी। जैसे तैसे गर्व उत्सव का आयोजन सफल रहा और जिसमे चंडीगढ़ के अलावा पंजाब हरियाणा दिल्ली और दूसरे राज्यों से भी समुदाय के लोग आये थे। उत्सव में भारी मात्रा में सामान्य लोग भी शामिल हुए। उन्होंने बहुत सहियोग दिया। मेरे परिवार का हर सदस्य गर्व उत्सव में गर्व महसूस कर रहा था। गर्व इस बात का की हम सब सामान है। किसी के समलैंगिक होने मात्र से ही वह इंसान अलग नहीं होता। वह भी हमारी तरह एक आम इंसान है।

गर्व उत्सव से एक माह पहले ही मेरी बेटी और बेटे को मैंने सीधे बता दिया था की मैं और मेरे साथी लोग समलैंगिक गर्व उत्सव मना रहे है। और यह उत्सव केवल उन लोगों का ही नहीं मेरा भी है। क्योंकि मैं भी एक समलैंगिक हूँ। तो उनका जवाब था की पिता जी हमें पहले ही पता था कि समलैंगिक हो और हमने इसको बड़े ही सहज और सरल भाव से लिया क्योंकि हमें पता था कि यह एक प्रकृति स्वभाव है। इसमें किसी का कोई दोष नहीं। मुझे अब तो हर तरफ से पूरा सहयोग मिल रहा था।

मुझे अपने परिवार पर बहुत गर्व है। मेरी बेटी और उसके ४० दोस्तों ने मेरे लिए गर्व उत्सव में फ़्लैश मोब किया। उनके सभी मित्रों ने बड़े ही गर्व से इसमें भाग लिया और मेरा साथ दिया। मैं आज जो कुछ भी हूँ वो अपने परिवार और मित्रों के कारण हूँ। मेरे खुद के धैर्य और मेहनत ने आज मुझे इस मुकाम पर पहुँचाया है। मुझे धन की परवाह कभी नहीं रही। मुझे हमेशा समाज की भलाई के लिए काम करने का जूनून था। यही जूनून मुझे हमेशा समुदाय के काम करने को उकसाता रहता है। लोग कहते हैं की तुम्हे क्या मिलता है मुफ्त में लोगों की सेवा करता है। तो मैं जवाब देता हूँ कि जब कोई बीमार इंसान बीमारी के बाद ठीक हो कर मुस्कुराता है तो वही मुस्कराहट मेरा इनाम होता है। इसी वर्ष हमने दूसरी बार समलैंगिक गर्व उत्सव मनाया। इस बार भी काफी हद तक खर्च मैंने खुद किया। हालाँकि मुझे काफी कम्युनिटी और कम्युनिटी से बहार के लोग सहयोग देते रहे। इसमें मेरे परिवार का पूरा सहयोग होता था खासकर मेरी पत्नि हम सब के लिए रेनबो फ्लैग और मफलर सिल कर देती थी।

आज मैं जब बीते वर्षों को पीछे मुड़ कर देखता हूँ जिसमे मुझे दुःख, लानत और भेदभाव सहना पड़ा, मेरे साथ जो अत्याचार हुए उनके बारे में जब सोचता हूँ तो भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि भगवान ऐसे दिन किसी को न दिखाए जैसे मुझे दिखाए। लेकिन फिर सोचता हूँ कि सोना को जितना आग में गर्म किया जाता है सोना उतना निखर के सामने आता है। यही सोच कर मुझे वो दुःख-भरे दिन भूल जाता हूँ और कोशिश करता हूँ कि आने वाली पीढ़ी को वो सब न देखना पड़े जो मुझे देखना पड़ा हैं।

हमारे समाज की सोच में अभी बहुत से बदलाव होने कि जरूरत है। आम इंसान को समलैंगिकता के बारे में कुछ नहीं पता। हमारे देश में सेक्स एजुकेशन नहीं दी जाती। अगर सेक्स एजुकेशन दी जाये तो बहुत सी जानकारियां हमें हमारे यौवनकाल में ही पता चल जाएँ। इससे हम कई तरह की गलत भ्रांतियों से बच जायेंगे। हमें यौन रोग के बारे में भी पता चल सकता है की यह कैसे होता है और इसका कैसे उपचार किया जाता है। हमें अपने शरीर की बनावट और उसके कार्य के बारे में भी जानकारी लग सकती है। हम अपने यौन अभिविन्यास और पहचान के बारे में भी जान सकते हैं ताकि आने वाली समलैंगिक पीढ़ी को भेदभाव न सहना पड़े।

धनञ्जय चौहान - प्रेम का अपराधीकरण नहीं किया जा सकता, भारतीय दंड संहिता की धारा ३७७ असंवैधानिक है!

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हमें यह भी पढ़ना चाहिए की हमारा समाज सिर्फ नर या नारी तक सिमित नहीं इसके अतिरिक्त भी समाज में ऐसे लोग हैं जिनकी यौन अभिविन्यास और पहचान बाकि लोगों से अलग है। ताकि समाज में हमारे साथ भेदभाव न हो और हमें हर सुविधा सही और बिना भेदभाव के मिल सके। आज मेरा अभी तक कोर्ट में केस अंतिम दौर में चल रहा है। केस मेरे पक्ष में है, मेरे खिलाफ कोई भी गवाह नहीं था। मैंने कोर्ट में भी अपने साथ हुए जुल्म की दास्ताँ सुनाई। कोर्ट ने भी बड़े गौर से मेरी बात को सुना था और मेरे साथ सहानुभूति प्रकट की। अब मेरे साथ जो हुआ सो हुआ। लेकिन मैं चाहता हूँ की ये सब दोबारा दोहराया न जाये। समलैंगिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए सख्त कानून बनने चाहिए ताकि हमें अपनी जिंदगी को अपने तरीके से शांति से जी सके।

अभी मुझे बहुत कुछ करना है। यह तो एक शुरुआत-भर है। अभी मंजिल बहुत आगे है। हमारे समुदाय के लोग खुल कर बहार नहीं आते। अंदर ही अंदर जुल्म को सहते रहते हैं जो की खतरनाक साबित होता है। हमें जुल्म के खिलाफ आवाज़ उठानी ही चाहिए। इसके लिए हमें खुल कर बहार आना होगा और सरकारों को बताना होगा की हम अप्राकृतिक नहीं हम भी आप जैसे हैं। नहीं तो ऐसे कई धनञ्जय चौहान हर रोज़ गलत केस में फसाए जायेंगे और उनको मारा जायेगा। आज मेरे साथ मेरा पूरा परिवार खड़ा है। समाज में बहुत से लोग होंगे जिनके माता-पिता ने अपने समलैंगिक बेटा-बेटी को कबूल कर लिया होगा। लेकिन ऐसा बहुत ही कम हुआ होगा जिसमे एक पत्नी और उसके बच्चों ने अपने पिता को समलैंगिक कबूल किया हो। मैं एक ऐसा खुशनसीब इंसान हूँ जिसकी पत्नी और बच्चों ने समलैंगिक पति और पिता के रूप में कबूल किया है।