कहानी: चादरे

मुझे याद है, मैं और वरुण उन सफ़ेद चादरों के नीचे परछाइयाँ बनाया करते थे, टॉर्च की रौशनी में। कुत्ता, बिल्ली जब कुछ ना बने तो भूऊऊत। उसका हसता हुआ चेहरा जिसे मैं आज तक नहीं भूला, हर चीज़ धुँधला गयी है पर उसका चेहरा वैसा का वैसा है यादो में। मेरा पहला दोस्त, पहला प्यार। जबसे उसके दादा जी मरे थे वो मेरी धड़कन हमेशा सुनता रहता था, वक़्त बे वक़्त| हर चीज़ हमने  सामने साथ की थी| पहली दोस्ती, पहली गाली, पहला सुट्टा, पहली पॉर्न, पहली दारु, पहला किस्स। हर चीज़ अपना असर छोड़ती है
पर किसी का असर इतना गहरा नहीं था, जितना पहली लाश का था। ये वो रंग था जो हमारे ज़हन से कभी नहीं उतरा। 

सर्दियों की सुबह थी, मैं सोलह का था। वरुण के क्वार्टरस में भीड़ भाड़ लगी थी; हवाओं में घुटन सी फेली हुई थी। मैं आँखे ही मल रहा था की वरुण भागा- भागा आया और मेरा हाथ पकड़ कर मुझे खीच ले गया। उन  घुमावदार सीढ़ियों से होता हुआ| सासे भारी हो रही थी मेरी, मेरे खली पेट में हलकी सी गुदगुदी हो रही थी, उसका पसीने वाला हाथ और उसका बार बार पीछे मुड़कर देखना।

हम दरवाज़े के सामने थे। शायद वरुण अकेले जाने की हिम्मत नहीं कर पाया था; उसे भीड़ से डर लगता था; ये उन ऑन्टी का क्वार्टर था जिनका कोई नाम नहीं था। भीड़ से भरा हुआ था। ये घर बिलकुल वरुण के घर की तरह था। सरकारी चुने की दीवार, बेतरतीब बिजली की फिटिंग, बड़ी सी बालकनी, बड़ी सी रसोई, छोटा सा बॉथरूम। अब हमें इंच खिसकने के लिए मशकत करनी पड़ रही थी। एक चूहा हमारे पाँव के पास तेज़ी से भागा शायद इतनी भीड़ से घबरा गया होगा। वरुण अब भी मेरा हाथ पकड़े हुए था पर अब मैं उसे खीच रहा था। हम भीड़ के मुहाने पर पहुँच चुके थे। लोग बात कर रहे थे पिछले मैच की और आने वाले चुनाव की। लाल पीली चेक वाली बेडशीट के नीचे कुछ पड़ा था।

पुलिस वाला बेडशीट हटाने लगा। सारी की सारी नज़रे इसी इंतज़ार में थी; उस और जम गयी। बेडशीट हटी और “हे भगवान” का झोखा निकला। वरुण अब भी मेरा हाथ पकड़े था पर कसकर।

“इन बच्चो को किसने आने दिया?”

जिसका नाम भी लोग अपनी ज़बाँ पर नहीं लाते थे वो ही अब चारो और बिखरी थी; खाने के मेज़ पर, शादी में, ब्याहो में, जनाज़ों में, बारातों में। किसी ने हमें लाश के साथ बिताये वो दो लम्हे भूलने नहीं दिए। लोगों को धक्खा ऑन्टी की मौत पर नहीं बल्कि इस बात से लगा था की उनकी मौत खुदखुशी से नहीं हुई। लोगों को पहले से पता था यही होने वाला है बस टाइम की बात है। अब फिर हमारी कॉलोनी में राहत थी, सुकून था। कॉलोनी की मर्यादा फिर से स्थापित हो गयी थी।

हमारे घरों में अक्सर बोला जाता था की “बड़ो की बात नहीं मानोगे तो इस जैसा हाल हो जायेगा।”  पहले ये बात हमारे चाचा के लिए बोली जाती थी; जो कॉलेज की किसी लड़की के साथ भाग गए थे और फिर कभी नहीं लौटे थे। पर मेरे घरवालों को लगता था की ऑन्टी अब ज़्यादा डरावना उदाहरण है।

हरी सब्ज़ी नहीं खाओगे तो ऑन्टी जैसा हाल हो जायेगा। सुबह जल्दी नहीं उठोगे तो ऑन्टी की तरह हो जाओगे (हालाँकि ऑन्टी हर रोज़ मुझसे और वरुण से पहले बस स्टेशन पर खड़ी रहती थी ) …  बड़ो से बहस करोगे तो… (पहली बात मैंने ऑन्टी की आवाज़ कभी सुनी नहीं थी, दूसरी बात ऑन्टी के घर पर कोई बड़ा या छोटा नहीं था वो अकेली थी)

पर कुछ भी हो अब मै मम्मी का हरा कचरा गले उतारने लगा; जल्दी उठने लगा; और अपना मुँह बंद रखने लगा (पर बहुत ज़्यादा दिनों तक नहीं)। मुँह बंध रखने का नुकसान ये हुआ की अब मैं सोचने लगा था, और सुनने लगा था। सुना था की वो ऑन्टी कभी जवान थी; और सुना था की उसे प्यार था किसी शादीशुदा आदमी से। सब कुछ चलता रहता अगर वो चुपके से आँखे मिलाते। सफ़ेद चादरों के पीछे मिलते। पर वो कीमत चुकाने के लिए तैयार हो गए और यहीं सब गड़बड़ हो गयी। वो साथ रहने लगे। शुरू में वो एक दूसरे के लिए काफी थे, उन्हें किसी की ज़रुरत महसूस नहीं हुई। समय बीतता रहा: वो अब भी साथ थे पर उन्हें पता चल गया था की वो अकेले हैं, बिलकुल अकेले। एक रोज़ आदमी वापस लौट गया पर ऑन्टी नहीं लौट पायी, पीछे कुछ बचा ही नहीं था ।

ऑन्टी लोअर डिवीज़न की कलर्क थी; और इसी के लिए उन्हें क्वार्टर मिला था पर उन्हें हमारी कॉलोनी में कभी जगह नहीं मिली। कभी किसी सर्दी की शाम में; जब  कोहरा सा फैला हुआ था; वो अभी ऑफिस से लौटी ही होंगी। हाथ पैर ठंडे हो चुके थे। उनके पतले पतले हाथ काँप रहे थे चाय बनाते हुए। चीनी  का डिब्बा खाली मिला उस दिन। पड़ोसियों से माँगने का सवाल ही नहीं था। अँधेरे में  धीरे-धीरे चीनी का थैला लिए आ रही थी ऐसा हुआ या नहीं पता नहीं, पर ना जाने मुझे क्यों लगता है इतने सालों के दरमियान ये हुआ ही होगा। मैं वरुण के घर पर था। वरुण के पापा न्यूज़ पढ़ रहे थे और उसकी मम्मी चाय सर्व कर रही थी। “उसने कचरा जमा कर रखा था, सोफों के नीचे, पलंग के नीचे, बॉलकनी में। लोग डिप्रेशन में क्या क्या करते है,” वरुण के पापा ने अचानक अख़बार रखते हुए कहा। “सही में,” वरुण की मम्मी ने नज़रे झुका कर कहा।

पता नहीं उस वक़्त उनके दिमाग से वो कचरे वाली लड़ाई गुज़र रही थी या नहीं। सुबह ऑफिस जाने से पहले ऑन्टी ने कचरा बाहर रखा था, पर किसी कुत्ते ने कचरे वाले के आने से पहले उसे फैला दिया था (असल में मैं और वरुण ने)। शाम को ऑन्टी शॉल में लिपटी आ रही थी। गली के कौने पर उसके दिखते ही वरुण की मम्मी जो चालू हुई। हर कोई घर से बाहर निकल आया था। वरुण की मम्मी का हर ताना “रांड” से खत्म हो रहा था। ऑन्टी गर्दन नीचे करके चलती रही। वो रोयी नहीं क्योकि चुनाव उसी का था।

ऑन्टी से पहले वरुण अक्सर बोलता था की हम घर छोड़ेंगे तेरे चाचा की तरह। पर उसके बाद उसने कभी नहीं कहा; उसने कभी मुझे उस तरह कसकर नहीं पकड़ा। कुछ था जो ऑन्टी के साथ ही मर गया था। वो पल जो चुप्पी से भरे होते थे; जब हमारे बीच कोई नहीं होता था, कुछ नहीं होता था। उन पलो में मैंने उससे पूछा था की ऑन्टी की गलती क्या थी? “प्यार ही तो किया था उसने।” मेरी साँसें तेज़ चल रही थी। “शादीशुदा आदमी से,” वरुण ने कहा और मै अब उसके बगल में लेट गया था। “प्यार अँधा होता है,” मैंने कहा। “पर समाज तो नहीं।” मैं उसकी तरफ ही देखता रहा, मेरा कमज़ोर वरुण। वो बोलता गया: “प्यार हो गया था तो ज़रूरी था की वो घर बार छोड़ कर उसी के घर जा बैठे? प्यार की बलि चढ़ जाओ? गलती पर उसकी कीमत चुकाने के लिए किसने कहा था उसे?” वो अब चुप होकर मेरी तरफ देखने लगा, मैंने नज़रे फिरा ली।

हमें पता था की वो गलत थी, हमे पता था की हम गलत थे, या हमे बताया गया था की जो अलग है वो गलत है। कुछ भी हो पहले हम अपनी उन शामो की कीमत चुकाने के लिए तैयार थे जब मै उसका हसता हुआ चेहरा देखता था और वो मेरी धड़कने सुनता था, पर अब नहीं, कीमत जानने के बाद बिलकुल नहीं। लाल पीली चेक वाली चादर। सफ़ेद चादर तुम्हारी हर गलतियों को ढख देती है, तुम्हारी कहानी कुछ भी हो पर अंत सम्मानजनक बनाती है। कौन आखरी बार अपनी लाल पिली चेक वाली बेडशीट में लिपटना चाहेगा जिस पर उसने कभी खाते हुए दाल गिराई होगी?

तस्वीर सौजन्य : क्यूग्राफ़ी

समय गुज़रता रहा। हमने कीमत नहीं चुकाई पर गलतियाँ जारी रही। हर बार दिल के किसी कोने में अनजान सा डर ज़िंदा रहा।

वरुण की शादी से पहले जब मैं उससे मिला तो उसने आँखे झुका कर कहा था, “मैं अकेले नहीं जीना चाहता।” शायद उसका मतलब था मैं अकेले नहीं मरना चाहता, ऑन्टी की तरह नहीं मरना चाहता। सुनसान घर में अकेले, छोटे से बाथरूम में फिसल कर। अपने खून को रिसते हुए देख कर, धीरे-धीरे होश खोते हुए। किसी के आने का इंतज़ार करते हुए। और मरने के बाद वो दिनों तक सड़ना नहीं चाहता था और वो नहीं चाहता था की उसकी लाश के कानो के कौने चूहे कुतर जाये। वो ऑन्टी की तरह लाल पीली चेक वाली बेडशीट में लिपटना नहीं चाहता था।

और वो लाल पिली चेक वाली बेडशीट में लिपटा भी नही। पाँच साल बाद जब मैं आखरी बार उससे मिला था तो वो अस्पताल की सफ़ेद चादर में लिपटा था। बड़े से परिवार से घिरा हुआ। उसे हमेशा से भीड़ से डर लगता था। उसकी आँखे झूखी हुई थी पर हमारी नज़रे बार-बार मिल रही थी। सब जा चुके थे। अब आखिर में उठकर मैं वरुण के पास आया। 

“मैं हमेशा तेरी धड़कने सुनता था आज तू मेरी सुन ले, ज़्यादा नहीं बची है।” वो रो रहा था।”मैं मर रहा हूँ।”

“मुझे पता है वरुण।” 

“और सबसे अजीब बात क्या है? की मैं खुश हूँ, की सब कुछ खत्म हो रहा है, डर, शर्म, दर्द सब ख़त्म हो रहा है।”

“बकवास मत कर वरुण।” मैं कुछ बोल नहीं पा रहा था कुछ था जो गले में अटक गया था।

“ज़िन्दगी बहुत पहले ख़त्म हो गयी थी मेरी, प्यार, लगाव, रोमांच, कहकहे सब तू ले गया… तुझे याद है अपने पड़ोस की ऑन्टी?” मैंने हाँ में सिर हिलाया।”मेरा सबसे बड़ा डर था की मैं उनकी तरह मरना नहीं चाहता था। अकेला मरना नहीं  चाहता था; पर यार अकेला जीना तो अकेले मरने से बहुत ज़्यादा चुभता है , दर्द…” उसकी सिसकिया गूँजती रही।

अगले दिन वरुण के क्वार्टर्स में बहुत भीड़ जमा थी। मैं आँखे मलते हुए बहार निकला था और मेरी हिम्मत नहीं पड़ रही थी; पर कोई मुझे खींचे वहाँ ले जा रहा था। घुमावदार सीढ़ियों से होते हुए मै फिर एक लाश के सामने खड़ा था। लोग वही बाते कर रहे थे, पिछले चुनाव की, आने वाले मैच की। हल्की सी सिहरन सी हुई। लगा ऑन्टी भी वही इसी भीड़ में है कही, हँस रही है, और कोने से देख रही है, सफ़ेद चादर वाली लाश।

यह कहानी सबसे पहले साथी कनेक्ट मैगज़ीन में प्रकाशित हुई थी और इसे यहाँ उनकी आज्ञा के साथ पुनः प्रकाशित किया गया है

कपिल कुमार (Kapil Kumar)
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