मेघधनुष्य की मृगतृष्णा

मेघधनुष्य या मृगतृष्णा?

मेघधनुष्य या मृगतृष्णा?

‘मेघधनुष्य – द कलर ऑफ़ लाइफ ‘ इस गुजराती फिल्म’ के कर माफ़ी के निर्णय में गुजरात सरकार और निर्देशक के. आर. देवमणि के बीच चली केस में आज उच्चतम न्यायलय नेयाचिका की सुनवाई की अनुमति देते हुए अंतरिम आदेश दिया। दो न्यायाधीशों, जस्टिस अनिल आर दवे और आदर्श के गोयल के पीठ ने कर माफ़ी का प्रमाणपत्र देने से इंकार किया। स्वयं को खुले तौर पर समलैंगिक बतलाने वाले गुजरात के राजपिपला के राजकुमार मानवेन्द्र सिंह गोहिल के जीवन पर यह फिल्म आधारित है। एक समलैंगिक के जीवन में आने वाली मुश्किलों को दर्शाने वाली इस फिल्म को सेंसर बोर्ड से मंजूरी मिली थी। उसके पश्चात निर्माता टैक्स फ्री सर्टिफिकेट मांगने गए राज्य कर आयुक्त के पास। उन्होंने उसे देने से कई कारण देकर इनकार किया। बावजूद इसके, कि गुजरात सरकार १ अप्रैल १९९७ के बाद बनी सभी गुजराती रंगीन फिल्मों को मनोरंजन कर से १०० फीसदी तक की छूट प्रदान करती है। देवमणि ने हाई कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया। कोर्ट ने फरवरी २०१४ में सरकार के विरुद्ध निर्णय दिया। गुजरात सरकार ने उच्चतम न्यायलय में अपील की।

अप्रैल २०१४ में उच्चतम न्यायलय ने हाई कोर्ट के आदेश पर रोक लगा दी। जनवरी २०१५ में होने वाली अंतिम सुनवाई आखिर १५ सितम्बर २०१५ को हुई और अंतरिम आदेश जारी हुए। इस मामले में याचिकाकर्ता देवमणि और वरिष्ठ वकील आनंद ग्रोवर; और अपील में गुजरात सरकार ने पेश की हुई दलीलों का अगर अध्ययन करें तो भारत में समलैंगिकता के बारे में होने वाली चर्चा के कुछ पहलू सामने आते हैं। कई धारणाएं है, जो समलैंगिकता का विरोध करने वाले कुछ लोग अपनी सफाई में पेश करते हैं। लेकिन क्या ये धारणाएं वास्तव, तथ्य, प्रमाण और सत्य की बुनियाद पर खड़ी हैं? पेश हैं ऐसी ही कुछ नुक्सानदेह धारणाओं का एक समलैंगिक दृष्टिकोण से उत्तर:

१) “कुछ लोग समलैंगिकता को सामाजिक बुराई समझते हैं।”

यह बात सच है कि देश में समलैंगिकता ही क्या, बहुत सारे विषयों पर मतभेद हैं, और होने भी चाहिए। ऐसा लोकतंत्र में आवश्यक है। किसी भी राष्ट्र में क़ानूनी तौर पर ऐसे मतभेदों का सर्वोच्च निर्णायक भारतीय संविधान होना चाहिए। उसमें दिए गए अधिकारों के ढाँचे में इनका समाधान होना चाहिए न कि बहुसंख्यवाद के ज़रिये। १९७५ से अमेरिकन साइकोलॉजिकल एसोसिएशन ने मनोवैज्ञानिकों को निर्देश दिया है कि समलैंगिक (गे और लेस्बियन) और बायसेक्शुअल (उभयलैंगिक) प्रवृत्ति पर लगे मानसिक बीमारी के कलंक को मिटाया जाए।

२) “समलैंगिकता समाज में असमंजस्य फैला सकती है।”

किसी के स्वाभाविक और कुदरती तौर पर समलैंगिक होने से समाज के समंजस्य पर असर कैसे हो सकता है? सामाजिक असमंजस्य भ्रष्टाचार, हिंसा, बलात्कार जीसी बुराइयों से फैलता है। अगर कोई व्यक्ति अपनी निजी ज़िन्दगी में बहादुरी और ईमानदारी से अपने सत्य को स्वीकार कर सर ऊंचा करके जिए, तो इससे सामाजिक समंजस्य को ही प्रोत्साहन मिलेगा, न कि असमंजस्य को।

समलैंगिक और उभयलैंगिक लोगों को उनके यौन अभिविन्यास के कारण व्यापक पूर्वाग्रह, भेदभाव और हिंसा का सामना करना पड़ता है। समलैंगिकों के खिलाफ का भेदभाव कई रूप लेता है। उत्पीड़न और हिंसा की ऊँची मात्रा गे-विरोधी तीव्र पूर्वाग्रह का संकेत है। बहुतांश समलैंगिक लोग शाब्दिक हिंसा (जैसे गाली-गलोच) का कहीं न कहीं अनुभव करते हैं। इसके अलावा, रोजगार और आवास के मामलों में उनके खिलाफ भेदभाव हो सकता है। अगर समाज में समलैंगिकों से सम्बंधित असमंजस्य फैलाया जा रहा है, तो वह ऊपर दी गई वजहों से है, न कि एक समलैंगिक के अस्तित्व या उसकी ज़िन्दगी के बयाँ करने से।

३) “कोई भी सभ्य परिवार ऐसी फिल्म नहीं देखना चाहेगा।”

इस वाक्य का एक निष्कर्ष यह है कि समलैंगिकता एक असभ्य – कल्पना? जीवनशैली? विकल्प? – है। गे, लेस्बियन और उभयालैंगिक लोगों के बारे में पूर्वाग्रह-दूषित धारणाएं कायम है, हालांकि अध्ययनों ने इन धारणाओं को गलत बतलाया है। उदाहरण के लिए, एक धारणा है कि गे तथा लेस्बियन संबंध दुष्क्रियाशील और दुखी हैं। हालांकि, कई देशों में अध्ययन से पता चलता है कि समलैंगिक और विषमलैंगिक जोड़े संबंध-संतुष्टि और प्रतिबद्धता के मापदंडों पर एक दूसरे के बराबर हैं।

एक दूसरी धारणा है कि ऐसे सम्बन्ध अस्थिर हैं। हालांकि, अनुसंधान से पता चलता है कि सामाजिक विरोध और कटुता के बावजूद, समलैंगिक टिकाऊ संबंध बनाते हैं। समलैंगिक जोड़ों की स्थिरता बढ़ायी जा सकती अगर ऐसे जोड़ों के भागीदारों को उनके संबंधों के लिए समर्थन और मान्यता का वही स्तर मिले जो विषमलैंगिक जोड़ों को मिलता है – यानि , शादी के साथ जुड़े कानूनी अधिकार और जिम्मेदारियाँ।

एक तीसरी आम ग़लतफहमी है कि समलैंगिक जोड़ों के जीवन लक्ष्य और मूल्य, विषमलैंगिक जोड़ों से अलग हैं। वास्तव में, जो कारक संबंध-संतुष्टि, प्रतिबद्धता, और स्थिरता को प्रभावित करते हैं, वे एक साथ रहने वाले समलैंगिक, या विषमलैंगिक विवाहित जोड़ों के लिए समान हैं।

यौन व्यवहार के अलावा, इन बंधनों को सुदृढ़ करता है वह व्यवहार जो सेक्स से ताल्लुक नहीं रखता – जैसे दंपत्ति के बीच का अशारीरिक स्नेह, आपसी ध्येय और मूल्य, आपसी सहयोग, और उनके बीच चल रही प्रतिबद्धता। इसलिए, यौन अभिविन्यास महज़ किसी के अंदर की एक व्यक्तिगत विशेषता नहीं है। बल्कि, वह एक समुदाय को परिभाषित करता है जिसके अंदर समलैंगिकों को संतोषजनक और रोमांटिक संबंध ढूँढना और मिलना मुमकिन है – ऐसा संबंध जो हर मानव की व्यक्तिगत पहचान का एक अटूट अंग है। किसी सामाजिक गुट को अपनेपन और सामान के दायरे से बाहर फेंककर, उससे द्वेष और उसके खिलाफ भेदभाव करना, यह असभ्यता है।

४) “अंधश्रद्धा, सति, दहेज़ जैसी बुरी सामाजिक प्रथाओं में समलैंगिकता शामिल है।”

गे, लेस्बियन और उभयलैंगिक रुझान विकार नहीं हैं। यौन अभिविन्यासों और मनोविकृति के बीच अनुसंधान ने कोई अन्तर्निहित सहयोग नहीं पाया है। विषमलैंगिक और समलैंगिक व्यवहार, दोनों मानव कामुकता के सामान्य पहलू हैं। दोनों के बारे में अलग-अलग संस्कृतियों और ऐतिहासिक युगों में लिखा गया है।

जटिल पूर्वाग्रह रखने से लोग सम- और उभय-लैंगिक लोगों को मानसिक रूप से असंतुलित करार करते हैं। पर कई दशकों के अनुसंधान और चिकित्सक अनुभव से निष्कर्ष मिलता है कि सम- और उभय-लैंगिक प्रवृत्तियाँ मानव अनुभव में स्वाभाविक हैं। अमरीका के सारे मुख्य चिकित्सा और मानसिक स्वास्थ्य संगठन इस बात की पुष्टि करते हैं। गे, लेस्बियन तथा उभयलैंगिक रिश्ते मानव संबंधों के नॉर्मल रूप हैं। इसलिए, इन मुख्यधारा के संगठनों ने दशकों पहले ही समलैंगिकता के मानसिक विकार के तहत किये गए वर्गीकरण को मिटा दिया।

समलैंगिकता प्रथा, परम्परा या रिवाज नहीं हैं। यह सच है कि एक व्यक्ति में विषमलैंगिक, उभयलैंगिक या समलैंगिक अभिविन्यास विकसित होने के सटीक कारणों के बारे में वैज्ञानिकों के बीच कोई सहमति नहीं है। अनुसंधान के द्वारा यौन अभिविन्यास (सेक्सुअलिटी) पर संभव आनुवंशिक, हार्मोनल, विकासकीय, सामाजिक, और सांस्कृतिक प्रभावों का अनुसंधान किया गया है। मगर ऐसा कोई भी निष्कर्ष नहीं उभरा है, जो वैज्ञानिकों को कहने की अनुमति दे कि ‘हाँ, यौन अभिविन्यास “इस” विशेष कारक या “इन” कारकों द्वारा निर्धारित होता है’। कई लोगों को लगता है कि प्रकृति और परवरिश, यह दोनों जटिल भूमिकाएँ निभाते है। ज़्यादातर समलैंगिक यह महसूस करते हैं कि उन्होंने अपने यौन अभिविन्यास को स्वयं नहीं चुना। अतः उसकी तुलना सति, दहेज़ और अंधश्रद्धा जैसी अज्ञान और रूढ़ीवाद में बद्धमूल सामाजिक बुराइयों से करना पूरी तरह से गलत है।

५) “समलैंगिकता राष्टीय एकता के विरुद्ध है।”

समलैंगिक आम नागरिकों की तरह अपना टैक्स भरते हैं, देश के कानूनों और नियमों का पालन करते हैं। हाँ, १८६० में लार्ड मकौले द्वारा विक्टोरियन समय में लादे गए भारतीय दंड संहिता की धारा ३७७ का पारिभाषिक दृष्टिकोण से वे उल्लंघन करते हों, परन्तु भारत के इतिहास में ऐसा कौनसा सबूत है कि समलैंगिक समुदाय ने देश के विरुद्ध कोई क़दम उठाया हो। बल्कि आज के बहुतांश समलैंगिक पुरातन भारतीय संस्कृति और सभ्यता में उनका हुआ उल्लेख और मौजूदगी से गौरवान्वित महसूस करते हैं। अपने भारतीयत्व और अपनी समलैंगिकता के बीच वे द्वंद्व महसूस क्यों करें भला? और ऐसा विकल्प उनके सामने रखना क्रूर और अन्यायपूर्ण है।

६) “यह एक विवादास्पद विषय है और इसे दिखाने से समलैंगिकता को वैधता और प्रोत्साहन मिलेगा।”

२०१२ में भारतीय फिल्म ‘आई एम’ को सर्वोच्च फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। उसमें ४ लघु कहानियाँ थी, जिनमें ‘ओमर’ इस कहानी में गुनहगारी के साए में जी गई समलैंगिक ज़िन्दगी में उठने वाली कठिनाइयों को बहुत खूबी से साकार किया था। ३७७ की वजह से रिश्वत, हिंसा, जबरन वसूली और शोषण का मार्मिक चित्रण करने वाली इस फिल्म को अगर देश का सबसे ऊंचा सरकारी पुरस्कार मिल सकता है, तो इसी विषय पर बनी किसी और फिल्म को कर माफी का प्रमाणपत्र देने से इनकार कैसे किया जा सकता है? क्या ओनिर सम्मान के हक़दार हैं और देवमणि भेदभाव के?

७) “यह फिल्म ३७७ द्वारा वर्जित गतिविधियों को प्रोत्साहित करती है।”

भारतीय संविधान हर नागरिक को अभिव्यक्ति का मूलभूत अधिकार और स्वातंत्र्य देता है। समलैंगिक समुदाय ने पिछले १७ सालों से न्यायालयों में दोहराया है कि धारा ३७७ इस अधिकार का उल्लंघन करती है। जब तक धारा ३७७ भारतीय दंड संहिता का हिस्सा बनी रहेगी, तब तक विवशता से समलैंगिकों को गुनहगारी की ज़िल्लत के साए में जीना पड़ेगा। अब अगर मात्र उनकी परिस्थिति को दर्शाने वाली फिल्मों के साथ भी भेदभाव हो, तो पता नहीं समाज में सुधार आने और अधिकारों की प्राप्ति होने में कितना विलम्ब होगा।

Sachin Jain