संपादकीय ५ ( ०७ मई २०१४)

'उपेक्षा नहीं, समावेश'। संपादकीय, मई १, २०१४। तस्वीर: बृजेश सुकुमारन।

‘उपेक्षा नहीं, समावेश’। संपादकीय, मई १, २०१४। तस्वीर: बृजेश सुकुमारन।

इस अंक की थीम है ‘समावेश’।

रूबिक्स क्यूब। प्लास्टिक की मामूली चौकोरी। लेकिन उसकी ६ रंगों की रंगीन पट्टियों को समान रंगों में सजाने की कसौटी से अच्छे-अच्छों के पसीने निकलते हैं। बतौर लैंगिक अल्पसंख्यक, हम समाज के रूबिक्स क्यूब के अटूट हिस्से हैं। एक तरफ, हम अपने आप को संरेखित (अलाइन) और समरूप बनाने के लिए कानून, सरकार और समाज को गुहार लगाते हैं। हाल ही में हुए ‘नालसा’ निर्णय से ट्रांस जेंडर समाज को मिले हक़ूक़, या फिर धारा ३७७ के क्यरेटिव याचिका की खुले कोर्ट में होने वाली सुनवाई इसका संकेत हैं की इन समाज के विभिन्न रंगों को ‘मैनेज’ करने में हम सब जुड़े रहते हैं – समलैंगिक और विषमलैंगिक, ताक़तवर भी और ताक़तहीन भी। लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक चुनाव में भारत में हम हिस्सा ले रहे हैं। १६वी लोक सभा के लिए लड़नेवाले कुछ प्रत्याशियों ने हमारा विरोध किया, तो कुछ ने अपने घोषणापत्रों में हमारा समावेश किया। सियासत की रूबिक्स क्यूब की खींचा-तानी में हम भी शामिल हैं। दूसरी तरफ हम इस एकरूपता की कल्पना के खिलाफ बग़ावत भी करते हैं, क्योंकि कभी-कभार, हम इस चौकोरी में अपने आप को पाते ही नहीं, इसके रंगों में अपना रंग तलब करते ही नहीं। या कभी चौकोरी हमारा समावेश करने से इंकार करती है। सच तो यह हैं, कि हम अनेक हैं, और एक भी। विभिन्न हैं, और समान भी। एक जैसे नहीं! समान।

इस रूबिक्स क्यूब के रूपक पर और गहराई से ग़ौर फरमाएँ, तो अहसास होता है कि शायद हर व्यक्ति अपने आप में एक रूबिक्स क्यूब है। क्या हम अपनी सुविधा के अनुसार अपने रंग बदलते रहते नहीं हैं? और क्या हमारे रंगों को इच्छानुसार संरेखित (अलाइन) करने के अट्टहास में हमारे ही कुछ हिस्से टूटकर बिखर जाते हैं? क्या हमारे पहलुओं के अलग रंग एक सामान हैं? क्या हमारी शिक्षा, वर्ग, जाती, धर्म, रहने की जगह, ज़बान, ये रंग काम-ज़्यादा, फीके या गहरे हैं, बनाये जाते हैं? समाज की रूबिक्स क्यूब में कैसे हो हर रंग और आकार का समावेश, ताकि कोई रंग ढँक न जाए, और एक आकार की धार-कगार दूसरे आकार को हानि न पहुँचाये?

यक़ीनन, एलजीबीटी समुदाय और समाज में होनेवाली हालिया गतिविधियों को मद्देनज़र रखते हुए, इस अंक में ध्यान ट्रांस समाज पर केंद्रित करते हैं। उच्चतम न्यायलय के ‘नालसा’ निर्णय का बारीकी से विश्लेषण करते हैं अक्षत शर्मा, अपने लेख “थर्ड जेंडर का आधा-अधूरा हक़” में। फैसले के विभिन्न पहलु, जेंडर आइडेंटिटी और यौनिक अभिरुचि इन संकल्पनाओं की तरफ जजमेंट में दिखने वाला रवैय्या, पिछले साल के समलैंगिकों के पुनरपराधिकरण के होते हुए उत्पन्न हुए विरोधाभास, ट्रांसजेंडर समाज के जीवन पर कानूनन होनेवाले परिणाम, ऐसे कई और विभिन्न मुद्दों पर अक्षत के लेख से आप इस विषय पर चारों तरफ से हो रही टिपण्णी तक पहुँच सकते हैं।

फोकस हमारे ट्रांस बहनों, और ट्रांस भाइयों, दोनों पर है। अल्पसंखयकों में अल्पसंख्यक, ट्रांस मेन समाज अपने अस्तित्व के इंकार और अपनी पहचान के दमन से तंग आ चुका है। उपेक्षा का अंत होने पर ही समावेश की शुरुआत हो सकती है। नीतियाँ बनाने की प्रक्रिया में योगदान और एल.जी.बी.टी.आई.क्यू. समाज में अपनी स्वायत्त पहचान को स्थापित करने के प्रयास में लगे लोगों से हम वाक़िफ़ होते हैंट्रांस मैस्क्युलाइन लोगों का पत्र, केंद्रीय समाजकल्याण मंत्रालय कोमें।

फिर मिलते हैं पाकिस्तान की हमारी ट्रांस बहनों से, “कराची के ख्वाजा सिरा” इस लेख में। शरमीन उबैद-चिनाई की पुरस्कृत फिल्म “ट्रांसजेंडर्स – पाकिस्तान का खुला रहस्य” में हमारा परिचय होता है चाहत, मैगी और सना से। कागज़ी तौर पर उच्चतम न्यायलय से हक़ूक़ मिलने के बाद भी समाज में समावेश नहीं होता, यह बात हमें उनके शनाख्ती कार्ड मिलने के संघर्ष से समझ आती है। उनकी ज़िन्दगियों, आशाओं, मुहब्बतों, और निराशाओं से हमें क़रीबी निगाह से देखने का अवसर देने के लिए हम उनके और डायरेक्टर साहिबा के शुक्रगुज़ार हैं।

मई २०१४ के अंक की एक और खासियत है। पहली बार बांग्लादेश के लेखक गेलैक्सी हिंदी में लिख रहें हैं! ज़ुलहाज़ मनन का लेख “बांग्लादेश में मानवीय इन्द्रधनुष!” ढाका में हुए पोहेला बोईशाख के अवसर पर मंगल शोभा यात्रा में शामिल इंद्रधनुषी रंगों से सजे समुदाय के सदस्यों और समर्थकों के आनंद का वर्णन है। यह भी समावेश का एक तरीका है – भले ही लैंगिकता अल्पसंख्यक अब तक ज़ाहिर तौर पर अपनी आवाज़ नहीं उठा पाए हैं, लेकिन समाज के उत्सव में समावेश करके, परेड में शिरकत लेकर उन्होंने एक अनूठे ढंग से अपने अस्तित्व को ज़ाहिर किया।

यह रहा समावेश का चुप-चाप, मिल-घुलकर समा जाने का उदाहरण। इसका विपरीत उदाहरण है अंकित भूपतानी का, जिन्होंने मुंबई की लोकल ट्रेनों में आम जनता से समलैंगिकता पर बातचीत करी। “अगला स्टेशन? क्वीयर आज़ादी!” में वे अपने अनुभव बताते हैं – कुछ मीठे, कुछ खट्टे। कभी-कभी समावेश करने के लिए चुप्पी साधना उचित नहीं – आवाज़ उठाकर स्थापित व्यवस्था का ध्यान आकर्षित करना और संघर्ष करना भी ज़रूरी है। यह बात अंकित ने अपने लेख में बख़ूबी अधोरेखित की है।

“आँख मिचौली – मेरी सच्ची जीवन कहानी” इस आत्मकथन के दूसरे और अंतिम भाग में पढ़े, १९६० के दशक में जन्में शादीशुदा शिखर का आत्म स्वीकृति की ओर का दिल छू जानेवाला सफर। अपने जीवन के इस कठिन दौर के बारे में उनकी प्रमाणिकता और सहजता उल्लेखनीय हैं, खासकर इसलिए कि यद्यपि पारिवारिक या अन्य वजहों से औरतों से शादी करने वाले समलैंगिक बहुत (शायद आज की तारीख़ में बहुमत में?) हैं, बहुत कम हैं जो अपनी ज़िन्दगी का इस तरह ब्यौरा देकर अगली पीढ़ी को अपने अनुभवों से सीखने का मौक़ा देते हैं। समाज की चकोरी में अपने आप को बंदी बनाकर, उसके रंगों को ‘आज्ञाधारी पुत्र’ बनकर धारण करने के बाद भी अपने असली रंग और अपना असली आकार खोजने की शिखर में जिज्ञासा है।

नैतिकता, तथ्य, तर्क, शर्म। क्या ‘समावेश’ एक ज़हरीला फल है, जो दूर से दिखता कुछ है, पर ग्रहण करने पर परिणाम कुछ और देता है? पढ़िए अक्षत शर्मा की कविता “नक़ाब”

पढ़िए जय यादव की मनोरंजक और सोचने पर मजबूर करने वाली कहानी “आदित्य” की पाँचवी और आख़री कड़ी

आशा है आपको यह अंक पसंद आएगा। आपके लेखों, आपकी राय और कविताओं का हमें इंतज़ार रहेगा, editor.hindi@gaylaxymag.com इस पते पर। लिखना न भूलें!

आपका नम्र,
सचिन जैन
सम्पादक, गेलैक्सी हिंदी

Sachin Jain