‘थर्ड जेंडर’ का आधा-अधूरा हक़

थर्ड जेंडर का आधा-अधूरा हक़। छाया: अमोल पालकर।

थर्ड जेंडर का आधा-अधूरा हक़। छाया: अमोल पालकर।

पिछली दफ़ा साल २०१३ में समलैंगिकता से जुड़े मुद्दे के बाद जेंडर/लिंग/यौनिकता से जुड़ा एक दूसरा मामला देश के सर्वोच्च न्यायालय के पास जाता है। लेकिन इस बार जस्टिस के.एस राधाकृष्णन और जस्टिस ए. के सीकरी की दो जजों की बेंच लम्बे अरसे से समाज के हाशिये पर पड़े तबके को अपने फैसले से निराश नहीं करती। फैसले में ‘ट्रांसजेंडर’ और हिजड़ा समुदाय को राहत देते हुए दो जजों की बेंच ने उन्हें ‘तीसरे जेंडर’ के तौर पर पहचान तो दी ही साथ ही इसमें जन्म पर महिला नियुक्त पुरुषों और विपरीत्तयः व्यक्ति भी शामिल माने गये । ख़ास बात ये भी रही कि इस संवेदनशील मुद्दे पर फैसला सुनाते हुए ‘जेंडर आइडेन्टिटी’ और ‘सेक्सुअल ओरिंटेशन’ पर काफी ज़ोर दिया गया। जस्टिस सीकरी अपने फैसले में कहते हैं राष्ट के विकास का सही पैमाना उसकी आर्थिक वृद्धि नहीं बल्कि मानवीय गरिमा है (पेज ८८, पॉइंट ९९)। कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकार को निर्देश दिए कि ट्रांसजेंडर और हिजड़ा समुदाय को उनके ज़रूरी हक़ दिलाने में नीतियाँ बनायीं जाएँ।जिसके लिए कोर्ट ने उन्हें ६ महीने का समय दिया है।

हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न लैंगिक पहचानों को मान्यता तो दी है पर वह अब भी ‘सेम सेक्स’ जोड़ों और भिन्न जेंडर पहचान के लोगों के बीच रज़ामंदी से यौन सम्बन्ध को धारा ३७७ के तहत ग़ैरक़ानूनी करार देता है और समलैंगिकों के साथ अभयलिंगियों को ‘थर्ड जेंडर’ के इस फैसले में शामिल नहीं करता।जबकि जानकार इस फैसले में कुछ विरोधाभास भी देखते हैं उनके मुताबिक ये फैसला उन्हें ये हक़ ज़रूर देता है कि वो (ट्रांसजेंडर) खुद को किस रूप में देखते हैं(महिला /पुरुष /तीसरा लिंग ) लेकिन यौनअभिरुची के सवाल पर एक खालीपन छोड़ता है जिससे ये सवाल समलैंगिकता के दायरे में चला जाता है। कुलमिलकर कहीं न कहीं इसे पूरा फैसला कहना जल्दबाज़ी होगी और जब तक धारा ३७७ को हटा न दिया जाये इसके अधूरे रहने की सम्भावना बनी रहेगी।

वरिष्ठ वकील आनंद ग्रोवर के मुताबिक़ सुप्रीमकोर्ट का ये फैसला सिर्फ ट्रांसजेंडर ही नहीं बल्कि एल.जी.बी.टी. आन्दोलन के लिए भी एक एतिहासिक जीत है,जिसने आगे कई नई राहें खोल दीं है। क्योकिं ये किसी भी तरह के यौनक अभिरुचि या लैंगिक आधार पर किये गये भेदभाव को ग़लत मानता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारे समाज का बड़ा हिस्सा लैंगिक असंवेदनशीलता का शिकार है। प्रियंका एक ट्रांसजेंडर है। उसके अपने कुछ सपने थे, वो बाक़ी बच्चों की तरह पढ़ना और स्कूल जाना चाहती थी। पर पढ़ाई आधे रस्ते में ही रोकनी पड़ी वो भी सिर्फ इसलिए क्योंकि वो बाक़ी बच्चों के जैसे ‘सामान्य’ नहीं मानी गयी, उससे कहा गया कि नाच गाना ही उसका सही काम है। प्रिंयंका जैसे कई और छात्र भी होंगे जो स्कूल–कॉलेज में मिलने वाली प्रताड़ना के चलते बीच रास्ते में ही पढ़ाई छोड़ने को मजबूर हैं।

आज़ादी के बाद आया इस तरह का फैसला बेशक प्रियंका जैसे ‘ट्रांसजेंडर्स’ के लिए स्वागत यौग्य है, क्योंकि इस फैसले ने उन्हें क़ानूनी और संवैधानिक मान्यता देने की शुरुआत की है। जिससे अब उन्हें बाक़ी नागरिकों की तरह अधिकार और ‘थर्ड जेंडर’ के तौर पर पहचान देने की बात कही गयी है। फैसले में कोर्ट ने उन्हें सामजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा वर्ग मानकर सरकार से आरक्षण देने को कहा है जिससे उन्हें शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण का लाभ मिल सकेगा, वो क़ानूनी रूप से शादी कर पाएंगे,उन्हें जायदाद का हक़ मिल सकेगा। इसके आलावा उन्हें वोटर आईडी, पासपोर्ट और ड्राइविंग लाइसेंस जैसी अन्य सुविधाएँ भी उपलब्ध कराने का निर्देश दिया गया है। इस बीच सवाल ये भी है कि क्या ये समुदाय पहले से ओ.बी.सी का दर्जा पाए लोगों के साथ प्रतिस्पर्दा कर पायेगा?

उधर, सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से पहले चुनाव आयोग ने उन्हें ‘अन्य’ का दर्जा देकर चुनाव प्रक्रिया में उनकी भागीदारी और उनके अधिकार उनतक पहुँचाने की पहल कर चुका है। साल २०१२ में जहाँ नालसा (नैशनल लीगल सर्विसिज़ अथौरिटी) ने इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की जिसमें ट्रांसजेंडर को तीसरे जेंडर के तौर पर मान्यता देने और लोगों के बीच उनके प्रति जागरूकता बढ़ाने की बात कही। वहीँ, २०१३ में सुप्रीम कोर्ट ने मामले से मिलती जुलती दूसरी याचिकाओं की सुनवाई एक साथ करना स्वीकार किया। गौरतलब है कि अब तक अधिकतर सरकारी फॉर्म और कागज़ात उन्हें लिंग के तौर पर सिर्फ पुरुष और महिला के विकल्प को चुनने पर मजबूर करते थे। इतना ही नहीं स्वास्थ्य सुविधाओं जैसी ज़रूरी सेवाओं के अभाव के चलते उनके स्वास्थ्य पर इस तरह के भेदभाव और पूर्वाग्रह का प्रतिकूल असर पड़ता रहा है (पेज ८)।

१५ अप्रैल, २०१४ को सुनाये इस फैसले से ट्रांसजेंडर’ और हिजड़ा समुदाय के कुछ लोगों को एक राहत ज़रूर मिलती है।संजना काफी समय से इसी समुदाय का हिस्सा रही है। वो कहती है कि इस फैसले के बाद उसे उम्मीद है कि आने वाले वक़्त में वो कुछ ज़रूरी जगहों और पदों पर अपने समुदाय के लोगों को भी देख सकेगी।पर संजना जैसे कई लोगों की इस तरह की उम्मीदों के पीछे कुछ सवाल भी जुड़े है।

बेशक पूरे देश में अब जाकर इस समुदाय को कानूनी और संवैधानिक अधिकार मिले हों पर क्या उन्हें ये समाज बराबरी का मान सम्मान दे पायेगा? किन्नर एक तरह से एल.जी.बी.टी समुदाय का वो हिस्सा है जो सबसे लम्बे अरसे से हमारे समाज के बीच रह रहा है। जिसे समाज जानता है, आसानी से देख पाता है। इतना ही नहीं जहाँ सुप्रीम कोर्ट भी अपने फैसले में इस बात को मानता है कि ट्रांसजेंडर और किन्नरों को काफी लम्बे अरसे से भेदभाव और प्रताड़ना झेलनी पड़ी है। लेकिन वहीँ, जिस पितृसत्तात्मक समाज में हम रहते हैं जहाँ किसी ‘पुरुष’ को ‘औरत’ जैसा कहकर पुकारना गाली और ‘अशोभनीय’ समझा जाता है क्या वहां इस बात की उम्मीद की जानी चाहिए कि किन्नरों के प्रति इस्तेमाल की जानी वाली हमारी शब्दावली और भाषा बदलेंगी? या वो लोग आगे चलकर उनके मातहत काम करन पसंद करेंगे?

ट्रांसजेंडर हर रोज़ अपने आस पास के लोगों से अपशब्दों और उनकी नज़रों में छुपे कौतुक को देखने के आदि हो जाते हैं। कई बार उनपर फब्तियां भी कसी जाती है। क्योंकि कोर्ट उन्हें बराबरी का दर्जा और अधिकार दे चुका है। क्या इस फैसले के बाद उनसे ऐसा व्यवहार करना बंद होगा? क्या माँ बाप अपने ट्रांसजेंडर बच्चों को इस फैसले के बाद अपनापाने में आसानी महसूस कर पाएंगे या उनका सामाजिक बहिष्कार करना बंद कर देंगे ? क्या कम्पनियां उन्हें रोज़गार देने में आगे आएँगी? और क्या अब पुलिस से मिलने वाली प्रताड़ना कम होगी ? क्या मीडिया और फिल्मों में उनकी बनी बनाई छवि को तोड़ा जायेगा? क्या समाज उन्हें अब तक की अवहेलना के बाद अपनाने का साहस कर सकेगा? क्या उनके द्वारा गोद लिए गये बच्चों के साथ भेदभाव नहीं होगा? या फिर इस समुदाय को मिली नई ‘मान्यता’ का सीमित असर ही देखने को मिलेगा। जिससे एक बार फिर प्रियंका, संजना, रानी, हसीना और काली हाशिये पर ही दिखेंगी?. क्योंकि रोज़गार न मिलने के चलते इनमे से कई जिस्म फरोशी के पेशे को मजबूरन अपनाने को बाद्य हो जाते हैं।

इस फैसले से पहले राज्य स्तर पर तमिल नाडू जैसे राज्य में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के विकास के लिए कुछ योजनायें ज़रूर लागू हुई, उम्मीद है इस फैसले के बाद ऐसी योजनायें पूरे देश में लागू करना और आसान हो पाएगा। सवाल ये भी है क्या एल.जी.बी.(लेस्बियन/ गे/ बाइसेक्शुअल) समुदाय भी इन्ही क़ानूनी दलीलों की बात नहीं करता? जिन दलीलों के चलते आज ‘ट्रांसजेंडर’ समुदाय को उनके अधिकार हासिल हुए?

बहरहाल, कहना ना होगा कि ये अधिकार और पहचान उन्हें किसी राजनीतिक दल से नहीं बल्कि कोर्ट/संविधान की व्याखा से हासिल हुए हैं, जो उन्हें किसी भी तरह से कमज़ोर नहीं मानता बल्कि बराबरी का अधिकार देता है। जितना ज़रूरी सुप्रीम कोर्ट से इस फैसले का आना रहा, उतना ही ज़रूरी कोर्ट के फैसले को अमल में लाने और समाज के नज़रिए को बदलने का भी है,क्योंकि सुप्रीमकोर्ट का दायरा समाज की लिजलिजी मानसिकता बदलने के दायरे में नहीं आता। उसे उसके लिए खुद पहल करनी पड़ती है। कानून अपना काम कर चुका है, उनके उत्साह का दायरा जंतर मंतर तक सीमित न रहे।इसलिए अब ज़रूरत सामाजिक और मानसिक बदलाव की है जिससे किन्नरों और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को समाज की मुख्य धारा में लाने के साथ ही आम नागरिक का दर्जा और मानवाधिकार दिलाने में मदद मिलेगी। हर वर्ष ३० अप्रैल ट्रांसजेंडर दिवस के तौर पर मनाया जाता है। अनुमान के मुताबिक़ भारत में करीब २० लाख ट्रांसजेंडर है और यकीनन इस बार ये दिन इस समुदाय के लिए और ख़ास होगा। इस जीत के लिए ‘बधाई’।

अक्षत शर्मा