अधिकार माँगपत्र – समय की ज़रूरत

चुनाव की रंगारंग सरगर्मी में समलैंगिक अधिकारों की दखल?

चुनाव की रंगारंग सरगर्मी में समलैंगिक अधिकारों की दखल? तस्वीर: बृजेश सुकुमारन।

राजनैतिक दलों और राजनीति का हम सब की ज़िन्दगी पर गहरा प्रभाव पड़ता है। देश के संविधान, कानून और नीतियाँ बनाने और पालन करने वाले अक्सर इन्हीं दलों से जुड़े होते हैं। एल.जी.बी.टी. लोगों की ज़िंदगियाँ भी इस हकीकत से अनछुई नहीं हैं। इसलिए अगर हम चाहते हैं कि हमारा कानून और हमारी नीतियाँ एल.जी.बी.टी. के लिए सकारात्मक हों, तो हमें इन दलों से बातचीत करनी ही पड़ेगी। उन्हें हमारे नज़रिये से परिचित कराना पड़ेगा, जेंडर और यौनिकता क्या है यह समझाना पड़ेगा।

एल.जी.बी.टी. समुदायों के लिए सिर्फ कानूनन अपराधीकरण की समाप्ति ही एक बड़ा विषय नहीं है। गरिमा से जीने के लिए जीवन के हर पहलू में समान अवसर और अधिकार मिलना आवश्यक होता है। चाहे वह शिक्षा हो, रोज़गार, स्वास्थ्य या हिंसा से सुरक्षा हो। सोचने की बात यह है कि अक्सर कानून बदलना ही काफ़ी नहीं होता, उसका पालन होना भी तो ज़रूरी होता है। इसके लिए ज़रूरी है सामाजिक नज़रिया बदलना, और इसमें जनता की नज़रों में हमेशा बने रहने वाले राजनैतिक दलों और उनके नेताओं की ज़िम्मेदारी के बारे में जितना कहा जाए उतना कम है। चुनौती यह है कि हमारे राजनैतिक दल हर विषय को वोटों की गिनती से ही मापते हैं। शायद लोकतंत्र का यही “नियम” है। एल.जी.बी.टी. लोगों को भी सोचना होगा कि किस तरह वे अपने हकों की लड़ाई को वोटों से जोड़ें।

मगर एक सीमित तौर पर नहीं। एल.जी.बी.टी. अधिकार व्यापक तौर पर मानव अधिकारों से परे या जुदा नहीं हैं। सो इन्हें अगर सीमित तौर पर राजनैतिक दलों के समक्ष प्रस्तुत किया जाए तो शायद न ही वोटों की गिनती बनेगी, और न ही यह एल.जी.बी.टी. तथा मानव अधिकारों के हित में होगा। उदाहरण के लिए अगर कोई दल धारा ३७७ को ख़त्म करने का वायदा करता है तो हमें यह भी जाँचना होगा कि महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा ख़त्म करने का उसका दावा क्या है, या खाप पंचायतों के मामले में उसका रवैया क्या है। चुनौती मात्र राजनैतिक दलों को अपनी बात मनवाने में नहीं है, बल्कि अपनी सोच को अपने स्वार्थ से परे विस्तृत करने में भी है।

३७७ का जाना ही काफी नहीं है। इसलिए कुछ लोगों का सुझाव है कि राष्ट्रीय स्तर पर एक एल.जी.बी.टी. ‘चार्टर ऑफ़ डिमांड्स’, एक अभिमान माँगपत्र बनाया जाए, और राजकीय पक्षों को चुनावों से पहले सौंपा जाए। पहले भी ऐसे माँगपत्र बनाये गए है। लेकिन इस बार चुनौती अद्वितीय है। यह देखकर बहुत ख़ुशी होती है कि कुछ महत्त्वपूर्ण राजकीय दलों ने समलैंगिक अधिकारों को अपने घोषणापत्रों में शामिल किया है।

पवन ढल भारत में जेंडर और लैंगिकता पर बातचीत और समझ को बढ़ावा देने वाले ‘वार्ता’ प्रकाशन के संस्थापक सदस्य हैं।