‘सागर और राजेश’ – एक कहानी (भाग १/२)

सागर और राजेश: एक कहानी। तस्वीर: सचिन जैन।

सागर और राजेश: एक कहानी। तस्वीर: सचिन जैन।

शुक्र है दुकानों में खरीदारों की भगदड़ नहीं मची थी। सागर के चश्मे पर भांप जम गई। अभी-अभी वह ४२२ नंबर की ठंडी ए.सी. बस से मोती महल स्टॉप पर बम्बई की नम, चिपचिपी मानसूनी हवा में उतरा था। चौड़ी सड़क पर गाड़ियां स्टॉप पर ठहरी बस से आगे निकलने के तरीके ढूँढ रहीं थीं। एक मिनट के लिए भी इंतज़ार नहीं होता था उनसे। कान-फाडू हॉर्न वे यूं बजाने लगते जैसे ज्यादा लाड-प्यार से सर पर चढ़ाया हुआ रईसजादा अपने माता-पिता को चीखकर उल्टा जवाब देता है। तेज़ रफ़्तार से फुटपाथ पर चढ़नेवाली मोटरसाईकलों से बचकर वह चल रहा था। बारिश का मौसम था। बूंदा-बांदी ज़ोर पकड़ने के संकेत दे रही थी। सागर चलते-चलते एक चौराहे पर आ पहुंचा। चौराहे के एक तरफ सजीले सुनहरे अक्षरों में मर्मर के पट पर लिखा हुआ उसने पढ़ा: ‘संजय भगुराम ताम्बे चौक’। पट के ऊपरी किनारे पर बैठे कबूतरों की विष्ठा के बहते झरने ताम्बे साहब का लिहाज़ करके सुनहरे अक्षरों के कुछ इंच ऊपर ही सूख गए थे।

आज सागर की छुट्टी का दिन था। खार स्टेशन के पास होटल में वह वेटर था। वहीं होटल की छत पर अन्य वेटरों के साथ छज्जे के नीचे सोता था। छुट्टी के दिन वह ‘घर’ से निकला करता था। शहर की सडकें, उनपर घटनेवाली अनपेक्षित घटनाएं उसके लिए पर्याप्त मनोरंजन थीं। उसे सनीमा-पिक्चर पर पैसे खर्च करना फिजूल लगता था। और फिर होटल में नीचे वाले बार से २४ घंटे दारू की बदबू आती थी, जिससे उसकी अंतड़ियां मथनी की तरह मोड़ती-मरोड़ती थीं। बायीं तरफ लाल कैपसिटर बॉक्स पर कमर के बल टेंक देकर वह खड़ा हुआ। एडी पर हवाई चप्पल की चरचराहट महसूस करना उसे अच्छा लगता था। बॉक्स लगभग पुर्णतः फिल्मों के पोस्टरों और दसवीं के कोचिंग क्लासों के विज्ञापनों से ढंका हुआ था।

सामने से एक काली-पीली ऑटो दिखाई दी। चौक पर पहुँचते ही उसकी रफ़्तार कम हुई। सागर के पास आकर ‘टर्र’ से चलनेवाला ऑटो का इंजन कुछ धीमा हुआ। आदतवश सागर ने आँखें संकीर्ण कर रिक्शा के भीतर झुककर देखा और ड्राइवर को ताड़ा।

रिक्शावाले की उम्र ४० के करीब होगी। घनी मूछें, थोड़ी घिसी हुई लेकिन तंग खाकी रंग की पैंट। तगड़ी, द्विशाखी बरगद जैसी जांघें। आँखें चारों तरफ देखकर संभाव्य सवारी को खोजने में माहिर। लिंकिंग रोड के पैसेंजर अपनी ब्रांडेड खरीदारी की नुमाइश करनेवाली थैलियों को इस अंदाज़ में पकड़ते थे जैसे स्कूली नाटक में दुर्गा माता बनी लड़की अपने हाथों में थर्माकोल के हथियार पकडती थी। गाड़ियों से निकलते धुए से त्रस्त, रिक्शावाले पर भड़ास निकालने के लिए लड़ने को सदैव तत्पर।

कहते हैं रिक्शावालों को ३६० डिग्री दृष्टि है -कौओं की तरह वे सबकुछ एक साथ देखते हैं। आने-जाने वाले हर राहगीर को आँखों में आँखें डालकर शिद्दत के साथ देखते हैं, मानो वे उसे अन्दर बैठकर कहीं जाने के हेतु सम्मोहित कर रहे हों। इस शिद्दत का फायदा उठानेवाले बांकों की बंबई में कमी नहीं। रिक्शावाले ने ऑटो के ऊपरी तिरपाल के नीचे सर झुकाकर, कैपेसिटर बॉक्स पर लगाए नंदी सनीमा में लगे भोजपुरी पोस्टरों को, और फिर सागर को देखा। सागर ने पिछले महीने की एक तिहाई पगार खर्च करके ग्लोबस से खरीदा हुआ नारंगी रंग की फैशनी हाफ-शर्ट, पतली टांगों का बारीकी से अनुरेखन करती स्किनी जींस पहने थे। सागर ने धीरे से ऐनक उतारी और शर्ट पर पोंछी। एहतियात से उसने चश्मा पहना और ऑटोवाले से नज़रें मिलाई। औटोवाले के अस्थाई अवलोकन ने उसकी टकटकी में जड़ी इच्छा को समझा। अनायास, सागर की जीभ उसके नर्म झरबेरी होठों को हलके स्पर्श से लाल बना गई। आदतवश सागर की जीभ की नोक ठोडी के बालों के रूखे स्पर्श से कांपने लगी। चरचराहट एडी के अलावा उसके अन्य अवयवों को भी पसंद थी।

ऑटो वाले ने नाईट ड्यूटी पर रिक्शा चलाई थी। ‘तबेले’ की उसकी रिक्शा थी और वह बांद्रा के पुरातन कडेश्वरी देवी मार्ग पर रहता था। माउन्ट मेरी के बोमनजी सीढियों के पास, महबूब स्टूडियो के पीछे, बैंडस्टैंड पर या फिर कार्टर रोड की झाड़ियों में अक्सर रात २ से ५ बजे तक लौंडे सड़कों के किनारे खड़े रहते। कोई कुछ नहीं कहता। मानो उस समय शहर एक जंगल हो, और ये निशाचर पशु अपनी अभ्यस्त मुद्रा में अपने नियमित अड्डों पर विराजमान हो। लेकिन अभी तो दोपहर का समय था। कुछ पलों के लिए उनकी आँखें मिली। सागर की नज़रें उत्सुक थी, रिक्शावाले की तटस्थ।

रिक्शावाले ने कच्ची गोलियां नहीं खेली थी। उसने अपना बांया हाथ उठाया और ‘टिंग’! करके मीटर आधा घुमाया। जैसे किसी नेता की मौत पर ध्वज को आधा मस्तूल करते हैं। इससे संभाव्य भाड़े को मालूम होता है कि रिक्शा ‘खाली’, यानि बम्बैय्या भाषा में ‘उपलब्ध’ नहीं है। ताकि चौक के जोरशोर में प्रेमालाप का यह अज्ञेय मगर पेचीदा नृत्य बिना रुकावट संपन्न हो सके।

संपन्न होने की कोई गरंटी नहीं थी। क्षणमात्र में कुछ भी हो सकता था। एक और बेस्ट बस आने की हड़बड़ी में, गाड़ियों की पी-पी-पी को सुनकर ऑटो को मजबूरन वहां से निकलना पड़ता। या फिर क्रोधित बेस्ट ड्राईवर से माँ-बहन की गालियों के अलावा २-४ थप्पड़ भी खाने पड़ते। पेड़ के पीछे से यकायक एक पांडू हवलदार प्रकट हो सकता था, डंडा हिलाते, सीटी बजाते हुए, हाथों से ‘फुटो’ का इशारा करता हुआ, लाइसेन जेब से खींच निकालकर वापस देने के लिए रिश्वत का इंतज़ार करनेवाला हवालदार।

सागर भी मंझा हुआ खिलाड़ी था। उसने भी घाट-घाट का नहीं, तो कमसकम स्टेशन-स्टेशन का पानी पिया था। भोजपुरी फिल्मों और गणित के क्लासेस के पोस्टरों से लदी लाल बॉक्स पर कंधे से जोर देकर वह सीधे खड़ा हुआ। सर झुकाए, हाथ पॉकेट में डालकर, यथावकाश सागर ऑटो की तरफ चलने लगा। अन्दर बैठ गया। निःशब्द, रिक्शावाला बायीं तरफ झुका, स्टार्टर रॉड को फुर्तीली गुरगुराहट के साथ २-३ बार उसने ऊपर खींचा, और स्टार्ट होने पर ऑटो को लिंकिंग रोड पर चलाने लगा।

ऎसी परिस्थितियों में भी परस्पर शिष्टता के कुछ नियम होते है। कुछ सेकंडों के लिए दोनों ने अपनी दौडती सांसें नार्मल कर लीं। इस ढिठाई से दोनों के शरीरों में एड्रेनलिन का जैसे सैलाब बह रहा था। एड्रेनलिन – पशुओं के गुर्दों से निकलता हुआ वह रस जो तनाव, गुस्से या डर की उपस्थिति में स्रावित होता है। धीरे से उन्होंने दाएं रियरव्यू आईने में आँखें मिलाईं। दोनों मुस्कुराएं। सागर की मुस्कान मिरर पर चिपकाए प्लास्टिक के गहरे मोटे और सुर्ख लाल होठों में विलीन हुई।

“कहाँ जाएंगे”, रिक्शावाले ने कहा। वास्तव में यह सवाल नहीं था। महज़ बातें शुरू करने का तरीका, जैसे शतरंज की पहली चाल; एक तथ्य का बयान। वैसे सोचो तो जीवन का ही तथ्य। भाग्यवाद के समस्त तत्वज्ञान का सार। और ऐसे अप्रतिदत्त प्यार के पीछे भागनेवालों के लिए एक समुचित समाधि-लेख: “कहाँ जाएंगे”!

सागर आगे की तरफ झुका। गंज खानेवाली चालक और भाड़े के बीच की काली पार्टीशन पर फीके सफ़ेद अक्षरों में २ हिदायतें लिखीं हुईं थीं। हाथ से सफ़ेद पेंट द्वारा लिखी हिदायतों के अक्षरों की लिखाई खराब थी। ‘संजय भगुराम ताम्बे’ चौक के पट के स्वर्णिम अक्षरों जैसी नहीं; उनपर अतिक्रमण करनेवाली दस्त-ग्रस्त कबूतरों की विष्ठा की नदियों जैसी पतली और टेढ़ी-तिरछी।

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२. कृपया पाँव ऊपर न रखें।

सागर ने एक हाथ ड्राइवर की सीट के पीछे की रेलिंग पर रखा। वह रेलिंग जैसे असभ्यता की खाई में गिरने से बचने के लिए बनाया हुआ लोहे का जंगला था, जो किसी भी क्षण सागर की मनमौजी उँगलियों की वजह से क्षतिग्रस्त हो सकता था। सागर को लग रहा था जैसे इस जंगले के पीछे वह न्यायलय के कटघरे में बैठा हो, और औटोवाला पंच, न्यायाधीश और जल्लाद, तीनों हो। या फिर वे दोनों कटघरे में खड़े अपराधी हों, और रिक्शा के बाहर की दुनिया जल्लाद हो। उँगलियों पर गंज की चरचराहट अच्छी लगी, और लोहा ठंडा था। ऐसा स्पर्श उसे भाता था: उँगलियों पर गंज का, एडी पर चप्पल का, जीभ पर ठूँठी का। जींस में उसके दुबले-पतले नितम्बों की मात्र रेक्सीन की बेआराम, गरम सीट की वजह से जैसे पपडिया निकल रही थी। एक दर्जन फटी जगहों पर धागा भरके मरम्मत की गई थी – रेक्सीन की मरम्मत, उसपर रखी हुई उसके तशरीफ की नहीं। अलबत्ता आज-कल उसके ‘स्ट्राइक-रेट’ को मद्दे-नज़र रखते हुए… खैर।

क्या होगा इस कहानी में आगे? ‘सागर और राजेश’ इस कहानी का दूसरा और अंतिम भाग यहाँ पढ़ें ।

Sachin Jain