“हँसते होेेे हम पर? ज़रा एक बार के लिए सोचो, यदि ऐसा बच्चा तुम्हारे घर में पैदा होता तो?”
यह सवाल पूछने वाली एक किन्नर लड़की थी।

यह घटना 13 फरवरी 2011 की है जब मैं सपत्नीक अपने पुत्र के सड़क दुर्घटना के उपरान्त उसके उपचार के लिए रेल के शयनयान से बैंगलुरु जा रहे थे। हमारी सीट डिब्बे के दरवाज़े के एक दम करीब थी।

दो किन्नर लड़कियाँ, यात्रियों से भीख माँगते-माँगते हमारे पास आ गईं और अगले स्टेशन के इन्तज़ार में वहीं गेट के पास रुक गईं। तभी हमारा कोई सहयात्री हँस पड़ा। इसी हँसी पर उन में से एक ने यह प्रश्न पूछा था।

उसकी आवाज़ की कशिश और उसकी आँखों में झलकते दर्द ने मुझे आत्मा के स्तर तक झकझोर दिया। उसकी गम्भीर पीड़ा के आभास ने मेरे अन्दर सवालों का तूफान पैदा कर दिया।

वास्तव में यदि हमारा बच्चा भी ऐसा ही होता, तो क्या हम उसका पत्यिाग कर समाज में उपहास के लिए एक तिरस्कृत एवॅ उपेक्षापूर्ण जीवन जीने के लिए तथा भिक्षाटन कर अपना पेट पालने के लिए बाध्य कर देते? उसे कुष्ठ रोगियों की तरह समाज से अलग किन्नरों की बस्ती में रहने के लिए भेज देते? अपने जिगर के टुकड़े को अपने से दूर कर भगवान भरोसे छोड़ देते? क्या उसे खिलने के पहले ही मसले और कुचले जाने के लिए अपने से ज़ुदा कर देता?

मेरा मन चीख-चीख कर यह कहता रहा, नहीं नहीं कदापि नहीं। नहीं, हम कभी भी ऐसा नहीं करते। हम उसे एक सामान्य बच्चे की तरह ही पालते पोसते, पढ़ाते लिखाते, उसकी रुचि के अनुसार उसे अपना जीवन जीने के लिए प्रोत्साहित करते। ये मेरे लिए बड़े संतोष की बात है कि यही विचार मेरी सह धर्मिणी के भी हैं।

वास्तव में यदि हमारा बच्चा भी ऐसा ही होता, तो क्या हम उसका पत्यिाग कर समाज में उपहास के लिए एक तिरस्कृत एवॅ उपेक्षापूर्ण जीवन जीने के लिए तथा भिक्षाटन कर अपना पेट पालने के लिए बाध्य कर देते?

तभी विचार आता है, क्या हम वर्तमान सामाजिक परिवेश में इन आदर्शों के अनुरूप अपनी सोच को कभी भी वास्तव में क्रियान्वित कर पाएंगे?

उसके हम उम्र बच्चों के बीच क्या वह सामान्य रूप से औरों का सहज व्यवहार पाएगा? अपने रिश्तेदार भी जो उसके संपर्क में सबसे पहले आएंगे क्या उसे सामान्य बच्चे की तरह स्वीकार कर लेंगे? स्कूल में क्या वह किसी उपेक्षा और तानाकशी का शिकार नहीे होगा? सम्भवतः नहीं।

ऐसा क्यों होता है हमारे समाज में? ऐसे बच्चे का इसके लिए क्या दोष है? उसे भी तो उसी ईश्वर ने बनाया है जिसने अन्य सभी को बनाया है, फिर वो इस उपेक्षा का शिकार क्यों? वो समस्या नहीं है किसी के लिए। न कानून व्यवस्था में वह कोई अड़चन है और न ही स्वास्थ्य सम्बन्धी कोई समस्या है तब क्यों उन्हें प्रताड़ित किया जाता है? समाज के अन्दर रह कर ये कोई तकलीफ नहीं देते। फिर ऐसा क्या हो गया कि इनके साथ यह व्यवहार किया जाए? ऐसी व्यवस्था कब आरम्भ हुई? कैसे शुरु हुई?

'लिहाफ मेरे मोहल्ले में | छाया: बिनीत पटेल | सौजन्य: QGraphy
‘लिहाफ मेरे मोहल्ले में | छाया: बिनीत पटेल | सौजन्य: QGraphy

जिस समाज में पेड़, नदी, पहाड़ आदि जैसी जड़ चीज़ों के साथ साँप जैसे खतरनाक जन्तुओं तक को पूजा जाता है वहीं भगवान शिव जी अर्धनारीश्वर के रूप में इन उभयलिंगी मानव को पूजने के बदले तिरस्कार व उपेक्षा का पात्र बना कर एक नारकीय जीवन जीने के लिए क्यों मजबूर किया जाता है?

इन्हें भी अन्य सभी पुरुष स्त्रियों की तरह ही सामान्य जीवन जीने का अधिकार है, उसे उनसे क्यों छीना जाता है? इस पुरुष और स्त्री के द्वि-लिंगी समाज में इस तीसरे उभयलिंगी व्यक्ति को किस बात की सज़ा दी जा रही जिसमें इसका कोई कुसूर नहीं है।

इसे ऐसे समझिए। समाज में सभी लोग दाहिने हाथ से काम करते हैं परन्तु कुछ बाएँ हाथ से उसी कुशलता से सभी काम सम्पन्न करते हैं परन्तु वे समाज में सहर्ष स्वीकार किए जाते है। उदाहरणार्थ, क्रिकेट खिलाड़ी सौरभ गांगुली और वेस्टइन्डीज़ के गारफील्ड सेबर्स, भारत के महानायक अमिताभ बच्चन आदि बाएँ हाथ से काम करते हैं और वे अपनी अपनी उपलब्धियों के कारण प्रशंसा एवं सम्मान के पात्र हैं। ऐसा मात्र इसलिए कि उन्हें सामान्य से भिन्न होने के कारण भी किसी भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ा और उन्हें अपने-अपने क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा को निखारने का पूरा-पूरा अवसर बिना किसी भेदभाव के दिया गया। तब इन उभयलिंगी लोगों को वही समान अवसर क्यों नसीब नहीं होता है? यदि इन्हें भी इसी प्रकार समानता का अधिकार मिले तो ये भी मानव समाज में चमत्कार करेंगे क्यों कि तब इनका पता ध्यान केवल अपने कार्यक्षेत्र पर ही रहेगा, वर्तमान की तरह कई फ्रन्टों पर नहीं जूझना पड़ेगा।

वे भी उसी ईश्वर की कृति हैं जिसने इस जग में सब कुछ बनाया है। इस धरती पर ईश्वर की हर रचना के लिए प्रभु का कोई न कोई उद्देष्य है, ऐसा हम सभी मानते हैं और समझते भी है। धरा पर जीवन को संतुलित व स्थाई रखने के लिए सभी चीज़ें ज़रूरी है। इसलिए मानव समाज के इस एक बहुत छोटे से हिस्से को भी समाज में आवश्यकता है। ये हमारे समाज के ज़रूरी अंग हैं। इन्हें अपने बीच सहर्ष स्वीकार कर अपना कर परमेश्वर के प्रति अपनी कृतज्ञता का प्रमाण देना हम सभी का न केवल कर्तव्य है अपितु धर्म भी है।

अतः आज के इस समाज के लिए, जो सदियों के पूर्वाग्रहों या सही कहें तो दुराग्रहों से बुरी तरह जकड़ा हुआ है, यह आवश्यक है कि वह इन मानसिक बेड़ियों को तोड़ कर एक पूर्ण समावेषी समाज की रचना करें जिसमें यह समूह भी बिना किसी उपेक्षा, तिरस्कार व भेदभाव के पूरे सम्मान व गौरव के साथ भयमुक्त हो कर जीवन यापन करें। जब ऐसा होगा तभी तो गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर का सपना साकार होगा-

जहाँ मन है निर्भय और मस्तक हे ऊँचा
जहाँ ज्ञान है मुक्त
जहाँ पृथ्वी विभाजित नहीं हुई है छोटे छोटे खंडों में|
संकीर्ण स्वदेशी मानसिकता के दीवारों में
जहाँ शब्द सब निकलते हैं सत्य की गभीरता से
जहाँ अविश्रांत प्रयास उसका हाथ बढ़ा रहा है परिपूर्णता के ओर
जहाँ स्पष्ट न्याय का झरना खोया नहीं है अपना रास्ता
निर्जन मरुभूमि के मृत्यु जैसा नकारात्मक रेत के अभ्यास में

जहाँ मनको नेतृत्व दे रहे हो तुम
ले जा रहे हो निरंतर विस्तारित विचार और गति के मार्ग को
ले जा रहे हो वही स्वतन्त्रता की स्वर्ग को, हे मेरे पिता, मेरे देश को जागृत होने दो

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प्रदीप कुमार गैरोला (Pradip Kumar Gairola)
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