आँख-मिचौली – मेरी सच्ची जीवन कहानी (भाग २/२)

'आँख मिचौली', भाग २। तस्वीर: बृजेश सुकुमारन।

‘आँख मिचौली’, भाग २। तस्वीर: बृजेश सुकुमारन।

१९६० के दशक में जनमें एक भारतीय समलैंगिक की जीवन कहानी, उनकी ज़बानी। पहला भाग यहाँ पढ़ें। पेश है दो भागों का दूसरा और अंतिम भाग। यह कहानी ‘स्वीकृति’ मासिक में अंग्रेजी में प्रकाशित हुई है।

मैं यूनिवर्सिटी गया। ज़िन्दगी बदल गयी। मेरे ही होस्टल में रहता था वह बिलकुल स्ट्रेट, विषमलैंगिक था। पर मुझे उससे बेइंतहा प्यार हो गया। उसकी हर बात से मुझे प्यार हो गया। उस पर सवार साहित्य और संगीत का जुनून, अगल-बगल रहनेवाले सभी लोगों के लिए उसके दिल में जगह थी। जीवन की छोटी-छोटी बातों में वह आनंद लेता था। इस से पहले मुझे कभी भी प्रेम नहीं हुआ था। इसके साथ जुड़ी भावनाओं की तीव्रता का निजी अनुभव नहीं किया था। जब वह मुझ से बात करता, मेरे मन में लड्डू फूटते। जब वह व्यस्त होता और मेरी तरफ ध्यान नहीं देता, मैं जल बिन मछली की तरह तड़पता। जब वह बीमार हुआ, मैंने आँसुओं की नदियां बहाई। हमारा शारीरिक संपर्क हाथ मिलाने और, दुर्लभ अवसरों पर, गले लगने तक सीमित था। लेकिन ये पल मेरे जीवन के सबसे हसीं लमहें थे। ऊपरवाले का मैंने शुक्र माना कि मुझे ऐसा दोस्त मिला। भले ही मेरे जिस्मानी ज़रूरतों की तुष्टि नहीं हुई, मैंने अगले दस वर्षों तक किसी अन्य पुरुष के बारे में सोचा तक नहीं। आज भी मुझे उसका दोस्त होने का सौभाग्य है। वह उन चाँद स्ट्रेट लोगों में से है, जो जानते हैं कि मैं गे हूँ। जब मैंने उसे अपने बारे में बताया तो उसने कहा, ‘गे होने कि वजह से कभी अपने आप को बुरा मत समझना, बस यूँ समझो कि तुम एक अच्छे लड़के हो जो इत्तेफ़ाक़न गे है।’

आज जब मैं इस अतीत को निहारता हूँ तो महसूस होता है कि उसकी दोस्ती कि वजह से ही मैंने अपनी यौनिकता, अपनी सेक्शुएलिटी समझी। काश मैंने उस वक़्त इशरवुड का प्रसिद्द उद्धरण (कुओटेशन) पढ़ा होता। “आपकी यौनिकता का सुराग आपके जिस्मानी ज़रूरतों में नहीं, आपकी रूमानी आकांक्षाओं में मिलेगा। अगर आप सचमुच गे हैं, आप में पुरुष से प्यार करने की क्षमता होगी, सिर्फ सैक्स एन्जॉय करने की क्षमता नहीं।” बदक़िस्मती से जब तक मैंने यह बात सीखी, मेरी शादी हो चुकी थी। उसके बाद हाथ पर हाथ धरे बैठने के अलावा मेरे पास कोई और चारा नहीं था।

उसके बाद मैं इंकार और सामाजिक नियमों के प्रति अनुरूपता की चरम सीमा तक पहुँचने में मुझे ज़यादा वक़्त नहीं लगा। यूनिवर्सिटी में मेरा कोर्स समाप्त हुआ और मैंने एक लड़की से शादी की। यह निर्णय लेने के मेरे कई कारण थे। मैं जानता था की जिस तरह मैं अपने स्ट्रेट दोस्त से प्यार करता था, वह मुझे उसी तरह कभी प्यार नहीं कर पाता या करना चाहता. अकेलेपन का डर मुझे खाए जा रहा था। सामाजिक नियमों के हिसाब से मैं जीना चाहता था। मेरे सभी यार-दोस्तों की शादियों का सिलसिला चल रहा था। तो भला मेरी शादी क्यों नहीं? ये एक अरेंज मैरेज थी, बड़ों द्वारा तय की गयी शादी। मेरी बीवी वह पहली लड़की थी, जिसे शादी के हेतु मुझसे मिलाया गया था। मैंने ‘हाँ’ कह दिया। बस। इसमें और कोई पेच नहीं था। औरत से शादी करनी ही थी। मौजूदा हालात में मुझे तिल मात्र फ़र्क़ नहीं पड़ा, कि वह एक औरत हो या दूसरी। लेकिन २ दिन बाद मुझे राज़ी होने और हाँ कहने का भयानक पछतावा हुआ। लेकिन ‘अच्छा बच्चा’ जो था! इसलिए शादी के क्षण तक मैंने अपने आप को तैयारियों में व्यस्त रखा। पुरे दिन पागलों की तरह सारे काम निपटाता था। और फिर हर शाम मैंने २-३ पेग वोडका पी, जो मैंने न कभी पहले किया था, न बाद में। सर पर आई हुई क़यामत से कुछ वक़्त के लिए ही सही, मैं दूर भाग सकता था। मेरी ज़िन्दगी पर मायूसी छा गयी थी। पर मैं अपने होठों पर कृत्रिम मुस्कान बसाई और अपनी यातना सहने का निर्णय लिया।

डरावने वास्तव से रुबरु होने का समय आ गया था। शादी की रस्म और कार्यक्रम रंगीन और मज़ेदार थे। कठिनाइयाँ तब शुरू हुई जब जश्न की चहल-पहल समाप्त हुई, और मैंने अपनी ज़िन्दगी में एक नया शक़स पाया जिसे मैं जानता तक नहीं था और जिसके लिए मेरे हृदय में कोई भावनाएँ नहीं थी। उसका आना मैंने आक्रमण या जंग में चढ़ाई के रूप में देखा। कौन थी वह जिसे अब अचानक मेरी ज़िन्दगी की हर बात पर हक़ था, जिसे मेरी मेरी बनियान-जांघियों तक हर चीज़ तक पहुँच थी? मेरे मन में रोष पैदा हुआ। मेरी पत्नी का रोष भी कुछ कम नहीं था। आखिर उसने अपने माँ-बाप को एक ऐसे आदमी के लिए छोड़ा था, जिसे उससे रति-भर लगाव नहीं था। मैंने उसके साथ निहायती सज्जनतापूर्ण और दयालु-कृपालु रुख अपनाया। लेकिन आप ही सोचें। एक पढ़ी-लिखी, प्रोफेशनल भिन्नलैंगिक लड़की, जिसकी नयी-नयी शादी हुई हो। क्या वह बस इसी बात से संतुष्ट होगी, कि उसका पति उसके साथ नम्र और भद्र व्यव्हार करता है? बिलकुल नहीं। हम दोनों की दुर्दशा और क्लेश का कोई अंत दिखाई नहीं दे रहा था। शादी के शुरुआत के कई सालों तक, हमारे बच्चे के जन्म होने से पहले मैंने अनगिनत बार खुद्खुशी करने के बारे में सोचा। बाल-आखिर मैंने एक मनोचिकित्सक को कंसल्ट किया। उन्होंने मेरे लिए ऐंटि-डिप्रेसेंट दवाइयों का सिलसिला शुरू किया, जो आज तक चल रहा है।

मेरी दोहरी ज़िन्दगी तो देखें। शादी के बाद आठ सालों तक मैंने जिस्मानी तौर पर वफादारी निभायी। इसकी २ वजहें थी। एक थी कर्तव्य की भावना, दूसरी थी मौक़े का आभाव। इंटरनेट आने पर मौक़े की गैर-हाज़री का बहाना भी चला गया। मैंने गे सीन पर दुगने जोश के साथ प्रवेश किया। एक के पीछे एक करके अनेक पार्टनर बदले। मेरी भावनाओं का मिश्रण अजीब था। बेवफाई की वजह से शर्मिंदगी, यह अपराधी भावना की मैंने तो भागने का रास्ता निकला था, लेकिन मेरी बीवी अभी तक फसी हुई थी। मेरे नाजायज़ तालुकात मालूम होने का डर। लेकिन सबसे ज़यादा पीड़ा मुझे इस बात से हो रही थी की अन्य पुरुषों से शारीरिक सम्बन्धों के होते हुए भी मानसिक तौर पर किसी से भी मिलन नहीं हो रहा था।

आत्म-स्वीकृति की और का सफ़र इसके बाद तय किया। पाँच साल पहले मुझे मेरे सपनों का राजकुमार मिला। उसका मज़ाक करने का तरीक़ा कटीला है। ज़िन्दगी के प्रति उसका संदेहवादी और ‘बकवास बंद’ रवैय्या मुझे भाता है। इसी वजह से मैं अपने आप को जैसा भी हूँ, स्वीकार कर पाया हूँ। जीवन के पचास साल बाद मैंने अपनी लैंगिकता के साथ सुलह किया है और उसे अपनाया है। अब मुझे सुकून महसूस होता है। मुझे इस बात से बहुत शर्मिंदगी है कि मैंने एक लड़की से शादी करके उसे प्यार से वंचित रेगिस्तान जैसी रूखी ज़िन्दगी की सजा दी है। वो मुझे प्यार करती है और मेरा ख़याल रखती है। लेकिन मैं उसका ऋण चुकाने मैं अक्षम हूँ, और इसके लिए मैं और भी शर्मिंदा हूँ। मैं अपने गलतियों का प्रायश्चित इस तरह करना चाहता हूँ. मैं उन जवान लड़कों को सलाह देना चाहता और काउंसेलिंग करना चाहता हूँ जो आज दुविधा में हैं, जैसे मैं तीन दशकों पहले था। मैंने कुछ लड़कों को लड़कियों से शादी करके अपनी और औरों की ज़िन्दगी तबाह करने से रोकने में सफलता पाई है। ये इसलिए मुमकिन हुआ है की आज मैं अपनी लैंगिकता से, अपने अस्तित्व से और अपने आप से एकरूप हूँ। मैं ये तो नहीं कह सकता कि मैंने खुले आम अपने बारे में सबको बताया है। मैंने सिर्फ अपने भाई और अपने कुछ गिने-चुने स्ट्रेट दोस्तों को मेरे गे होने के बारे में कहा है। लेकिन मैं अनेक गे लोगों से मिला हूँ जो सक्रीय तौर से अपने वास्तव को नकार रहे हैं। मैं यक़ीन के साथ कह सकता हूँ के आत्म-स्वीकृति या अपने आप को स्वीकार करने की आतंरिक प्रक्रिया उतनी ही ज़रूरी है जितनी समाज को बताने की बाहरी प्रक्रिया ज़रूरी है। और उस बहरी प्रक्रिया को मुमकिन करने के लिए पहले वह अंतरंग प्रक्रिया आवश्यक है।