चुसकी – एक कहानी (भाग १/२)

प्रस्तुत है सोमेश कुमार रघुवंशी की २ किश्तों में पेश श्रृंखलाबद्ध कहानी ‘चुसकी’ का पहला भाग:

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रंगबिरंगी चुसकी. तस्वीर: ramaajays.blogspot.com

रंगबिरंगी चुसकी. तस्वीर: ramaajays.blogspot.com

मैं आँखे पोंछता हुआ अस्पताल से बाहर आया। कुछ दूर ढूँढ़ने पर मुझे चुसकी वाला दिखा। पर जैसे ही मैं चुसकी लेकर वार्ड में दाखिल हुआ, वह ठंडा पड़ चुका था। मैंने देखा कि चुसकी के रंग-बिरंगे शरबत पिघलती बर्फ में घुलकर कुछ अलग ही रंग के हो गए थे। मैंने चुसकी की कुछ बूँदें उसके मुँह में डालीं और एक चम्मच अपने मुँह में। उसके बाद मैं फूट-फुटकर रो पड़ा। वार्डब्वाय ने उसके शांत-सफ़ेद चेहरे पर साफ़ सफ़ेद चादर डाल दी। मानों बर्फ की सफ़ेद सिल्ली पड़ी हो।

लगभग एक सप्ताह पहले की बात है:

‘तुम मुझे पसंद करते हो इसीलिए तो आज तक मुझसे दूर नहीं हो पाए’ वॉट्सएप्प पर उसके गुड मोर्निंग के प्रत्युत्तर में मैंने लिखा। पिछले एक हफ़्ते से उसने मुझे फिर से अनब्लॉक कर दिया था और सुबह-शाम का शिष्टाचार संदेश मैं भेजने लगा था।

‘नहीं, मुझे तुम्हारे भद्दे चेहरे से, या तुमसे, कोई प्यार नहीं है।’ इतना लिखकर वह ऑफलाइन हो गया।

‘आई हेट यू ,बास्टर्ड’ लिखकर मैंने भी फ़ोन मेज़ पर उछाल दिया पर अगले ही पल आत्मग्लानि और खेद से भर उठा। फ़ोन फिर उठाया और लिखा ‘सॉरी’।

मन कुछ हल्का हो गया पर अगले ही पल मैं अपनी बेबसी पर कुढ़ उठा। कितना कमज़ोर बना दिया है इसने मुझे। ख़ुद मौत के मुँह पर खड़ा है फिर भी इतना घमंड ,ऐसा अहंकार।

अपनी एड्स की लड़ाई वह पिछले चार सालों से लड़ रहा है। हर रोज़ मौत उसके नज़दीक एक कदम बढ़ जाती है, उसके अन्य सम्पर्को से पता चला कि उसके स्वास्थ्य में भारी गिरावट आई है। पर वह कभी इस बात का ज़िक्र नहीं करता। मैंने कई बार उससे मिलने की गुज़ारिश की। पर हर बार उसने साफ़ इंकार किया। जब मैंने कुछ जज़बाती होकर आग्रह किया तो उसने ऐसी कड़वी बात लिखी, कि मैं अंदर से तिलमिला उठा और एक मौक़े पर तो मैं इतना कुढ़ गया कि मैंने लिखा: ‘तुम इसी लायक थे, अब मरो तिल-तिल कर…।’

“थैंक्स, सच मैं इसी लायक हूँ”, उसने लिखा।

यह पढ़कर मैं अंदर से दहल उठा। उन शब्दों में ढिठाई नहीं, कमज़ोरी थी।

मैं खुद से ही पूछ उठा –आह! तू इतना पतित तो नहीं हो सकता जो अपने ही प्रेम को ऐसे गाली दे।

मुझे आज तक पता नहीं चला कि उसने मुझे कभी प्यार किया या नहीं। पर मेरे जीवन में गुजरे लोगों में वह मुझे सबसे प्रिय था। और शायद है भी।

आशिफ से मेरी पहली मुलाक़ात चार साल पहले फेसबुक पर तब हुई जब मैं मेरे जैसे साथियों की तलाश में जुटा था। यह इत्तफ़ाक़ था कि उस बीस वर्षीय आशिफ की मित्र-सूची में उस वक्त दो हज़ार सात लोग थे और सात जनवरी को, जोकि उसकी जन्मतिथि भी थी, उसने मुझे दो हज़ार आँठवे मित्र के रूप में शामिल किया।

“तुम मेरे जन्मदिन के उपहारस्वरूप आए हो, मैं बेहद खुश हूँ”, उसने लिखा।

“तुम मेरे इक्कीसवें मित्र हो यानि कि शुभ-नेग”, मैंने प्रत्युतर में लिखा।

“फिर तो मैं तुम्हारे लिए लक्की हुआ”, उसने लिखा।

“बिल्कुल ,तुम्हें पाया यह मेरा भाग्य है।”

“फिर, आज तो मेरा जन्मदिन है, क्या दोगे?”, उसने लिखा।

“दे सकने लायक जो माँगोगे, मिल जाएगा।”

“तो मिलने आ जाओ…।“

“कब, कहाँ? बोलो तो आज ही आ जाऊँ।”

“डोन्ट बी इन हरी, विल सी यू ऑन नेक्स्ट संडे।“

“ठीक है”, कहकर हमने चैट को विराम दिया।

मेरे लिए यह पहला सुखद अनुभव था। गोरे छरहरे उस युवक द्वारा मुझे स्वीकारा जाना अपने आप में ही बड़ी बात थी। श्याम वर्ण, ठिगना कद और चेचक के दानेदार चहरे के कारण पिछले छह महीनों में जोरदार कोशिशों के बावजूद मेरे बीस से ज़्यादा मित्र नहीं बन सके थे।

कई बार मित्र-आग्रह अस्वीकृत किए जाने पर मैं इतना आहत हो जाता कि यह सोचने लगता कि ईश्वर ने मुझे ऐसा क्यों बनाया। कई बार कोशिश की कि पत्नी की ही तरह खुद को उस पर समर्पित कर दूँ । पर मन में कुछ ऐसी छटपटाहट थी जो उसके भरे-पूरे रूपवान नारी शरीर से भी ना जाती थी। शुरु-शुरु में अपने विचारों पर शर्म महसूस हुई पर जब इस विषय पर लेख पढ़े और इटरनेट पर अपने जैसे लोगों को देखना शुरु किया तो अपराधबोध जाता रहा और अपनी भावनाओं को समझने वाले साथियों की तलाश में निकल पड़ा।

अगले संडे को हम नोयडा के जी.आई. पी. मॉल में मिले। जैसे ही स्वचालित सीढ़ियों से चढ़कर मैं उसके पास पहुँचा उसने मुझे गर्मजोशी से बाहों में भर लिया। उसके इस बर्ताव से मेरे मन में उल्लास और आत्म-विश्वास दोनों भर उठे।

मैंने कहा: “मैं भयभीत था कि मुझे देखकर कहीं तुम बिना मिले न चले जाओ।”

“ओह ,शट अप यार, दोस्ती और मोहब्बत रूप-रंग जाति-धर्म से प्रभावित नहीं होती।”

फिर हम इधर-उधर की बातें करते रहें। फोन पर एक संदेश आने पर, उसे पढ़ता हुआ वह चिंतित होकर बोला – मेरे बी.एफ. का है, पूछ रहा है कहाँ हूँ, जान गया तो जान ही ले लेगा, अब चलना चाहिए।

मॉल के बाहर आकर उसने एक गोलेवाले की तरफ ईशारा करते हुए पूछा –“खाएँ?” उसने दो गोले चुसकी ऑर्डर किए। वह अपना गोला जल्दी-जल्दी चूस गया। मैं अभी आधा गोला ही खत्म कर पाया था। ‘क्या यार ‘कहते हुए उसने गोले का बाकी गिलास लिया और एक बार में मुँह में भर गया। “इट्स माई विक्नेस“ कहकर वह मुस्कुराया और उसकी इस ज़िंदादिली पर मैं भी हँस पड़ा। फिर हम दोनों ने अपनी-अपनी राह ली।

अब हमारी बातों में औपचारिकता की जगह आत्मीयता और गर्मजोशी आने लगी थी। हम रोज़ तीन-तीन घंटों तक बात करते रह जाते। एक दिन उसने मुझे सरप्राइज किया:

“मेरा प्रमोशन हो गया!“

“क्या कहीं बड़ी जगह जॉब मिल गई ?”

“नो यार, नाउ आई एम मामा ऑफ़ अ बेबी” आशिफ ने लिखा।

“बिग न्यूज़, बधाई, लड्डू कब मिलेंगे?” मैंने पूछा।

“हाथ खाली है यार, अभी तो यह ही समझ नहीं आ रहा कि बच्ची को नेग कैसे दूँ?” उसने भारी मन से लिखा।

“कल संडे है, याद है ना करोलबाग में मिलना है?”, मैंने टाईप किया।

“हं”, छोटा-सा उत्तर देकर वह ऑफलाईन हो गया।

अगले दिन मैं नियत समय से पहले करोलबाग पहुँच गया।

मेरे हाथ में शोपिंग बैग देखकर उसने पूछा, “मेरे लिए गिफ्ट किसलिए?”।

“शट अप, यह तो मेरी भांजी के लिए है! और देखों, अपनी दीदी से यही कहना कि तुमने ही दिया है।”

“पर मैं यह तुमसे कैसे…” उसने झिझकते हुए कहा।

मैंने उसकी पीठ पर हल्का मुक्का जड़ते हुए कहा, “हम दोनों के बीच में यह तेरा-मेरा…”

उसने सॉरी कहा और उस शाम हमने दो-दो चुस्की से पार्टी मनाई।

एक दिन सुबह-सुबह उसका मैसेज आया –‘आई एम वैरी अपसेट एंड लीविंग माई होम, दे डोन्ट अंडरस्टैंड मी…’

मैंने उसे फ़ोन किया: “आवेश में कोई कदम मत उठाना, घर के बाहर बस ठोकरें ही ठोकरें हैं।”

“मैं तुमसे प्रवचन की अपेक्षा नहीं रखता”, कहकर उसने फ़ोन रख दिया।

शाम को छह बजे उसका फ़ोन आया। “आई नीड योर हेल्प, दो-चार दिन के लिए क्या…।”

मैंने कहा: “तुम्हारे लिए मेरा दरवाज़ा हमेशा खुला है, तुम मेरे बस स्टैंड पर कब तक आ पाओगे? मैं वहीं मिलूँगा।”

“तुम्हारी फैमली…“ उसने झेपते हुए कहा।

“तुम भोपाल से आ रहे हो न! के.वी. में अभी क्वार्टर का बन्दोबस्त नहीं हुआ है न!” मैंने ऊँची आवाज़ में घर वालों को सुनाने के लिए कहा।

“ओह! समझ गया यार”,कहकर उसने फ़ोन काट दिया।

घर के सदस्यों से मिलकर वह अचम्भित हो गया। बाद में उसने एकांत पाकर कहा, “कुड यू प्लीज़ अरेंज अ बीयर?“

“आई सी ,पर मेरे घर में कोई नहीं पीता ,मैं भी नहीं…“।

“तो रहने दो” वह बुझे मन से बोला।

“मैं कोशिश करता हूँ ,पर इसे सोते समय ही पीना।” मैंने नाराज़ होते हुए कहा।

मैंने अपने एक दोस्त को फ़ोन किया जिसका भाई वाइन शॉप पर काम करता था। वह रात को दस बजे मुझे दो कैन बीयर दे गया। रात को मैं और आशिफ ऊपर के अकेले कमरे में आ गए। बीयर गटक जाने के बाद वह रोने लगा। मैं उसे गले लगाने के लिए बढ़ा। पर उसने मुझे धकेल दिया।

“यू चीट, पहले क्यों नहीं बताया कि तुम्हारे बीबी-बच्चे हैं?”

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आशिफ के इस प्रश्न का क्या देंगे सोमेश उत्तर? पढ़ें, ‘चुसकी’ एक कहानी: भाग २/२ में!