“ज़ीरो लाइन – एक पाक-भारत प्रेम कथा” – श्रृंखलाबद्ध कहानी (भाग २)

गेलेक्सी हिंदी के जून २०१४ के अंक में आपने पढ़ी थी हादी हुसैन की श्रृंखलाबद्ध कहानी “ज़ीरो लाइन – एक पाक-भारत प्रेम कथा” के पाँच कड़ियों की पहली कड़ी। प्रस्तुत है दूसरी कड़ी:

'भाकरिया डुंगरिया रे, थारे-म्हारे बीच मै'..."जीरो लाइन एक पाक-भारत प्रेम कहानी", भाग २। तस्वीर: सचिन जैन।

‘भाकरिया डुंगरिया रे, थारे-म्हारे बीच मै’…”जीरो लाइन एक पाक-भारत प्रेम कहानी”, भाग २। तस्वीर: सचिन जैन।

मुझे याद है, एक बार किसी ने मुझसे कहा था कि जब किसी को दुआ या बददुआ देना मक़सूद हो तो कहना चाहिए, “खुदा करे तुम्हें मुहब्बत हो जाए। सच कहूँ तो यह बात मुझे समझ नहीं आइ थी। मुहब्बत कैसे एक ही वक़्त दुआ और बददुआ हो सकती है? यह मुन्तक और तौजीह, मैं एक अरसा समझने से क़ासिर रहा. पर उस शाम, पीपल के पेड तले जब तुमने मेरा हाथ थामा तो ठीक उसी लमहे मुझ पर उस फिकरे के मायने आशकार हुए। वह मुहब्बत जो दुआ बनकर मेरे दिल के निहाँ-खाने में पनप रही थी, उस दिन मेरे लबों पर तिशनगी बनकर जाहिर हो गई। उस वक्त यह अन्दाजा लगाना मुश्किल था, कि तुम्हारी जानीब ये बेसख्ता झुकाव है, या महज़ चंद पलों के जिन्सी लुत्फ़ का तकाज़ा है, या उम्र भर का संजोग? मुझे तब अन्दाज़ा ही नहीं था कि तुम मुझे छूओगे तो मेरा सारा वजूद किसी अचानक मजज़ूब इश्क के मानिद झूम उठेगा। बुल्ले शाह का गीत है न “तेरे इश्क नचाए करके थैय्या थैय्या”, बिल्कुल वैसी ही हालत थी मेरी उस वक़्त।

तुम्हारे लम्स में से मेरे सारे खिज़ान बरीदा वजूद में बिजलियाँ चलीं और बस मैं तुम पर निसार होने को ताइर था। नॉर्थ कैंपस के उस कमरे में जहाँ एक गद्दी, दो कुर्सियाँ, ढेर सारी किताबों और शराब की खाली बोतलों के दरमियाँ जब तुमने मुझे अपनी बाहों के हिसार में लिया था, तो मुझे यूँ लगा जैसे मैं कोई मोम का गुड्डा हूँ, जो तुम्हारे लम्स से सारा का सारा पिघल जाऊँगा। तुम्हारी क़ुर्बत में एक अजीब-सा नशा था जो मुझे मदहोश किये जा रहा था। तुम्हारे साँवले जिस्म से उठने वाली सौंधी-सौंधी बू मुझे मज़ीद दीवाना कर रही थी। उस वक़्त खुद पर काबू रखना निहायत मुश्किल था। तुमसे एक-जाँ होने की ख्वाहिश शिद्दत से मेरे हवास पर हावी थी। उस लम्हे मुझे ऐसा लग रहा था कि जैसे अगर मैंने खुद पर काबू न रखा तो शायद मेरे दिल कि धड़कन बंद हो जायेगी।

उस वक़्त सिर्फ तुम्हारे होठों का अमृत ही मेरी जान बचा सकता था। जो तुम मुझपर किसी हातिम ताई के मानिंद न्योछावर कर रहे थे। तुम्हारे नरम होंठ और उनसे झलकता लोआब मेरे लिए किसी शीरीं जाम से कम न था। तुम्हारी ज़ुबाँ, जो मेरे होठों और मुँह में गोल-गोल घूम रही थी, मुझे मुक़द्दस होने का एहसास भी साथ-साथ दिला रही थी। तुम्हारी गहरी गरम साँसें और जिस्म से बहता पसीना, दिसंबर की उस सर्द शाम में अजीब लज़ात का एहसास दिला रहे थे। तुम्हारी पेशानी से उभरने वाली पसीने की लकीर का पीछा करने के लिए जब मेरी ज़बान तुम्हारी मज़बूत गर्दन से होते हुए, सीने तक पहुँची, मेरे होंठ बेसख्ता उससे खेलने लगे और तुमने लज़ात के एहसास से कराहना शुरू किया जो मेरी उस जहद को मुसलसल करने के लिए काफी था। उस पल तो अलफ़ाज़ जैसे कोई मायने ही नहीं रखते थे। जो कुछ भी था वह हाथों, होठों, आँखों और साँसों से तय हो रहा था। उस जिस्मानी संजोग में वह क़ुव्वत थी जिसने हम दोनों को बेपनाह ताकत अता कर दी थी। एक अजनबी-सी शनासाई की वजह से हमारी ज़ात के सब दरीचे एक दूसरे पर बग़ैर किसी पर्मिट, किसी विज़े के, मोहर के खुलते जा रहे थे। मुझे मालूम था की दुनिया के सबसे ज़्यादा जाज़िब-इ-नज़र मर्द नहीं थे। हाँ, मगर ऐसे ज़रूर थे जो मुझे खुद से बेगाना कर सकते थे और फिर शायद ऐसा हुआ भी।

रात के ऐसे ही आखिर पहर जब तुम यक़ीन और बे-यक़ीनी के आलम में बार बार मुझे छो कर महसूस कर रहे थे जैसे मैं कोई जीत-जागता इंसान नहीं बल्कि तुम्हारे तख़य्युल की कोई तहलीक या तुम्हारा कोई वहम हूँ। तब मुझे समझ नहीं आ रहा था की इतनी ढेर-सारी मुहब्बत को अपने वजूद के किसी कोने में समेट लूँ। मेरे वजूद का हर हिस्सा तुम्हारी मौजूदगी की गवाही दे रहा था। और तुम्हें अपनी बाज़ुओं में समेटे मैं सोच रहा था, कि इस सब कि बाद अब आगे क्या, अब और क्या? बहुत बेहतर होता अगर उस लमहे मैं सब कुछ छोड़कर भाग निकलता। बिलकुल वैसे ही, नंग-धडंग, औरयां जज़्बात कि साथ, दिल्ली की धुंद में कहीं खो जाता। ऐसे कि फिर कभी किसी को मेरा पता, मेरा सुराग़ न मिलता, खुद मुझे भी नहीं।

मुझे उस रात भी अंदाजा था कि हमारे तालुक को कोई मायने देना कितना नामुनासिब, कितना नामुमकिन, और कितना गैर-हक़ीक़ी था। भले ऐसे सरे-राह मुहब्बतें कहाँ हुआ करती हैं? जो कुछ हमने महसूस किया वह सब महज़ बाहमी जिस्मानी ज़रूरत का नतीजा भी तो हो सकता था। और तो और मैं मुसलमान और तुम हिन्दू। मैं पाकिस्तानी और तुम हिंदुस्तानी। यह मिलन होता भी तो कैसे? हमारी ज़िंदगियाँ कोई फिल्म थोड़ी न थी, जिसमें कम-अज़-कम वसल-ए-यार की उम्मीद ही बाक़ी रह जाया करती है, हम दोनों बिलफराज़ उस रात के संजोग को अगर मुहब्बत का जामा पहना भी देते तब भी इस विसाल के लिए कितनों से लड़ते और कितनी बार लड़ते? हम तो वह लोग थे जिन्हें हमारी अपनी ही ज़मीन पनाह देने से क़ासिर थी। हमारे जोड़े को तो तूफ़ान-ए-नूह के वक़्त भी कश्ती से यह कहकर उतार दिया गया था कि हम अफ़ज़ाइश-ए-नस्ल से बला तार थे। हमारे तालुक को बाँझ कहने वाले भला हमारी मुहब्बत को कैसे समझते?

गेलेक्सी हिंदी के अगस्त २०१४ के अंक में पढ़िए हादी हुसैन की श्रृंखलाबद्ध कहानी “ज़ीरो लाइन – एक पाक-भारत प्रेम कथा” के पाँच कड़ियों की तीसरी कड़ी

Hadi Hussain