यह कहानी है मेरे एक दोस्त की जिसका नाम विजय तो था लेकिन ऐसा लगता था मानो विजय उसके हाथों की लकीरों में ही नहीं थी।

शायद उसने भी मेरी और आप की तरह सेक्स के कॉलम में पुरुष ही भरा था, इस वजह से नहीं क्योंकि वो अपनी सच्चाई छिपाना चाहता था बल्कि इस वजह से ताकि ये समाज उसे घृणा भरी नजरों से न देखे।

जिस तरह हर किसी के पिता का एक सपना होता है वैसे ही वो भी अपनी इच्छाओं का दमन करके अपने पिता का सपना पूरा करने आया था। शायद उसको किसी और चीज़ में रुचि थी। एक दिन जब मुझसे बर्दाश्त न हुआ तो मैंने उससे पूछ ही लिया “तुझे किस चीज़ में रुचि है”। उसने अपने सिर को नीचे झुकाते हुए बताया वैसे तो मुझे वीडियो गेम खेलना अच्छा लगता है, उसके आगे की बात सुन के मेरी आँखों में आँसू आ गए जो कुछ इस प्रकार थी: “लेकिन मेरे पिताजी चाहते थे कि उनका एक बेटा हो जिसको वे डॉक्टर बनायें, लेकिन भगवान को शायद कुछ और ही मंज़ूर था, मैं अपने बाप का बेटा तो नहीं बन सका लेकिन उनका डॉक्टर बनने का सपना ज़रूर पूरा कर के दिखाऊँगा”।

मगर विजय की विजय में मानो साँप फन फैलाये बैठा हो, ये बात उसको भी पता थी जिस तरह यह समाज इसके जैसे लोगों का मज़ाक बनाता है वैसे ही उसका भी बनाएगा।

वो अक्सर अपने हाथों की लकीरें देख कर अपने आप से पूछा करता था: “मैं अपने पिताजी का सपना पूरा तो कर पाऊँगा ना? ”

जेसे तैसे अपनी सच्चाई को छिपा कर उसने फर्स्ट ईयर तो पूरा कर लिया, मगर अंदर ही अंदर उसे यह बात खाए जाती थी कि अगर लोगों को पता चलेगा कि मैं वो हूँ तो लोग मुझे किस नज़र से देखेंगे? लेकिन इस राज़ का राज़ रहना उतना ही मुश्किल था जितना सूरज का पश्चिम से निकलना।

एक दिन मेरे कुछ दोस्त मेरे रूम पर आए; क्योंकि विजय मेरा रूम पार्टनर था तो वो भी वहीं मौजूद था। यह तब की बात है जब उच्च न्यायालय ने एक लिंग के व्यक्तियों को सेक्स करने की अनुमति दे दी थी, इस विषय को लेकर हम दोस्तों में चर्चा शुरू हो गई। देखते ही देखते कुछ ऐसा हो गया मानो मेरे पैरों के नीचे की ज़मीन खिसक गई हो, मेरा एक दोस्त अचानक से बोल पड़ा, “लो भाई क्या हो रहा है इस देश में? अब छक्के भी सेक्स करेंगे?” यह सुनकर मैंने तिरछी नज़रों से विजय की तरफ देखा तो उस वक्त उसकी आँखों में आँसू थे, उसे देखकर एक बार को प्रतीत हुआ जैसे उसकी आँखें नहीं उसका दिल रो रहा हो। मैंने धीमी आवाज़ में अपने दोस्तों से कहा, “छोड़ो न यारों इन बातों में क्या रखा है, उनका भी अधिकार है करने दो जो वे करना चाहते हैं।” मगर अभी तो राई का पहाड़ बनना था, मेरी यह बात सुनकर वे और आग बबूला हो उठे। फिर और उल्टा-सीधा बोलने  लगे, ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो भूखे शेरों के सामने मास का टुकड़ा डाल दिया हो।

अंदर ही अंदर उसे यह बात खाए जाती थी कि अगर लोगों को पता चलेगा कि मैं वो हूँ तो लोग मुझे किस नज़र से देखेंगे?

विजय से यह बात बर्दाश्त ना हुई उसने अपने हाथ में लिया हुआ फोन ज़मीन पर दे मारा और वहाँ से बिना कुछ कहे आँखों में आँसू लिए चला गया। मेरे सभी दोस्त जो खिल्लियाँ उड़ा रहे थे उनके समझ में तो सब कुछ आ ही गया था वे भी धीरे-धीरे वहाँ से नौ दो ग्यारह हो गए।

जब बात निकली है तो उसका दूर तक जाना लाज़मी था। यह बात उन से पचने वाली कहाँ थी, देखते ही देखते यह बात पूरी कक्षा में फैल गई और वहाँ से पूरे कॉलेज में।

विजय ने शुरुआत में काफी लोगों को नज़रअंदाज़ किया। विजय की सहनशक्ति तब खत्म हुई जब हर कोई उसे चिढ़ाने लगा, कोई कहता था “तू इस कॉलेज से चला जा तेरे जैसों का यहाँ कोई काम नहीं” तो कोई उसके सामने “ए छक्के” कहकर चिढ़ाता था। उसका हर एक दिन मानो सौ साल के बराबर हो गया था, वो हर रोज़ रूम में आकर आईने के सामने बैठकर अपने आपको देख कर रोया करता था और अपने आप से कहता था “शायद मैं अपने पिताजी का सपना पूरा नहीं कर पाऊँगा”।

 रोज़-रोज़ के इन हादसों ने मानो विजय को अंदर से तोड़ दिया हो। विजय का मन यही सोच में रहता था कि अब मेरा क्या होगा? यह समाज मुझे जीने नहीं देगा।

 फर्स्ट ईयर में 80% अंक लाने वाला छात्र एक दिन बिना बताए कॉलेज से हमेशा-हमेशा के लिए चला गया, जिसकी खबर ना तो उसके माता-पिता को थी और ना ही किसी कॉलेज के छात्र को।

तो इस तरह एक बच्चा जो शायद अपने बाप का बेटा तो नहीं बन पाया, लेकिन उनकी डॉक्टर बनने की इच्छा पूरी करने आया था उसके सारे सपने चूर-चूर हो गए।

ना जाने ऐसे कितने बच्चे होंगे जिनका अंत उन के अंत से पहले ही हो जाता होगा।

तुषार वार्ष्णेय (Tushar Varshney)
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