रविश के नाम ट्रांस* बिल के विरोध में खत

ट्रांस* व्यक्तियों के तमाम विरोध के बाद भी अंततः राष्ट्रपति कोविंद ने ट्रांसजेंडर बिल पर दस्तखत कर दिए। जब राज्यसभा में एक हफ़्ते पहल यह बिल पास हुआ था मैं ऑफ़िस से रोते हुए घर आया था। और मेरें लबों पर था एक गीत, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की मशहूर ग़ज़ल ‘हम देखेंगे’। लेकिन आज मैं बेहद खाली महसूस कर रहा हूँ। जैसे गुस्सा होने की ताकत भी खो गई हो। एक तरह की उदासीन भावहीनता। एक दोस्त ने कहा कि हमारी लड़ाई खत्म नहीं हुई है, ‘द रेज़िस्टेंस मस्ट गो ऑन’। ज़ाहिर है, ट्रांस* विरोध इतना कमज़ोर नहीं है कि इस दमनकारी हत्यारी सरकार के बनाए कानून से हार जाए। इस समुदाय ने अंग्रेज़ों की गुलामी के दौरान ‘क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट’ झेला है, इससे पहले आई सरकारों का नक्कारापन झेला है, अपने परिवारों और दोस्तों का छूट जाना झेला है, इस ट्रांसफोबिक समाज की गालियाँ झेली हैं, हाँ इतनी व्यापक और घिनौनी हिंसा नहीं झेली। इस दमनकारी सरकार में, जिसमें एक औरत के साथ हुई यौन हिंसा और हत्या के कारण पुलिस द्वारा किए इनकाउंटर को न्याय का सही विकल्प ठहराया जा रहा है; वहीं ट्रांस* व्यक्तियों के खिलाफ़ होने वाली हर तरह की हिंसा को, चाहे वो यौन हिंसा हो या हत्या, विशेष सरकारी छूट भी मिली है।

भविष्य में क्वीयर समुदाय आज के दिन को हमारी ज़िंदगियों और आज़ादियों को खत्म करने की कोशिश के तौर पर देखेगा। पर खैर, ये इस सरकार की नियति ही है। मानवाधिकारों और संविधान प्रदत्त अधिकारों को खत्म करना। इस नफ़रत के खुले प्रदर्शन पर हम कैसे अपना दुख ‘अकादमिक और सभ्य तरीके से’ व्यक्त करें, कैसे अपने ट्रांस* प्रेमियों और दोस्तों को संभालें और उनकी हिम्मत बढ़ाएं, कैसे खुद की हिम्मत को बनाए और नाराज़गी को जलाए रखें आगे की जंग के लिए, शायद हम अभी नहीं सोचना चाहते। अभी के लिए हम बेतरतीब और बेतहाशा तरीके से केवल रोना चाहते हैं। अभी के लिए हमारी हिम्मत इस त्रासदी और लोकतांत्रिक मूल्यों की हत्या पर रो लेने में ही है।

ज़ाहिर है, ट्रांस* विरोध इतना कमज़ोर नहीं है कि इस दमनकारी हत्यारी सरकार के बनाए कानून से हार जाए। इस समुदाय ने अंग्रेज़ों की गुलामी के दौरान ‘क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट’ झेला है, इससे पहले आई सरकारों का नक्कारापन झेला है

एक दोस्त ने कुछ दिन पहले रविश को मैसेज किया था कि वे ट्रांस* बिल पर एक रिपोर्ट करें। रविश ने उनसे मेल कर इस बारे में और जानकारी मांगी थी। मैंने उन्हें एक छोटा सा खत लिखा था, यहाँ साझा कर रहा हूँ।

प्रिय रविश,

लगातार खराब होते दौर में हम सब के मानवाधिकारों का हनन होना सामान्य बात हो गई है। ऐसे में जो हाशियाकृत समाज है वो उधर देखता है जिधर उम्मीद दिखती है। और इसे आज आप में बेहद उम्मीद दिखती है। मैं समझता हूँ ये बेहद थका देने वाला और निराश करने वाला है। सबसे बड़े लोकतंत्र का दावा करने वाले मुल्क की केवल एक उम्मीद नहीं होनी चाहिए। जो मानसिक और शारीरिक थकान आप महसूस करते होंगे इस मुल्क में शायद ही उसकी कहीं सुनवाई हो। खैर, आप अपना ख्याल रखिए। जितना ज़रूरी है इस दमनकारी राज्य से लड़ना उतना ही ज़रूरी है स्टुडियो के बाहर लगे गुलाब के फूलों को दो पल निहारना।

जिन लोगों से मैं प्रेम करता हूँ और जिन लोगों ने हमारे क्वीयर (एलजीबीटीक्यु+) समुदाय की आज़ादी की लम्बी लड़ाई लड़ी है, ट्रांसजेंडर बिल उन सभी लोगों को केवल 25% इंसान और नागरिक रख छोड़ता है। अंग्रेज़ी हुकूमत ने 1873 में जो क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट बनाया उसमें मूल निवासियों के अलावा हिंदुस्तान (तब का नक्शा कुछ और था) के उन सभी समुदायों को भी अपराधी घोषित किया जो “मर्द और औरत” के खांचे में फिट नहीं बैठते थे। इसमें मुख्य तौर पर हिजड़ा, ख्वाजा सिरा, थिरुनंगई आदि प्रभावित हुए (आगे इन्हें इंडिजिनियस ट्रांसजेंडर समुदाय कहा है)।

जब भारत सरकार ने इन सभी “क्रिमिनल” ट्राइब्स को 1956 में डिनोटिफाईड किया तब इंडिजिनियस ट्रांसजेंडर समुदाय कहीं पीछे छूट गया। इस समुदाय को वोट करने का अधिकार भी एक लम्बी लड़ाई के बाद 1994 में मिला, आज़ादी के 47 बरस बाद।  एड्स एपिडेमिक (जो अभी भी बदस्तूर जारी है, और सरकार ने इसपर एक गहरी चुप्पी बना रखी है। केवल यही सरकार नहीं, इससे पहले भी स्थिति ऐसी ही थी। इसके अलावा क्या हम सोच रहे हैं कि कश्मीर में एड्स की रोकथाम की दवाएं मिल भी रही हैं या नहीं?) के दौरान सरकार ने इस समुदाय को नज़रअंदाज़ किया जबकि ये सबसे ज़्यादा संवेदनशील समुदायों में से एक था, और कोर्ट के कई चक्कर लगाने के बाद 2014 में सुप्रीम कोर्ट से हमें नालसा जजमेंट मिला। इसकी मुख्य बातें थीं, सेल्फ़-आईडेंटिफ़िकेशन: यानि कोई व्यक्ति अपने जेंडर का निर्ढारण स्वयं कर सकते हैं; ‘तीसरे’ लिंग के तौर पर मान्यता; स्वास्थ्य, शिक्षा और रोज़गार में आरक्षण आदि।

भारत सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को धत्ता बताते हुए एक ऐसा बिल पेश किया है जो बेहद अमानवीय है। इसे “बिल ऑफ राइट्स” कहा है लेकिन ट्रांसजेंडर एक्टिविस्ट मीरा संघमित्रा के अनुसार ये “बिल ऑफ रॉन्ग्स” है। जब इसे 2016 में पेश किया था तो इसमें और भी अमानवीय प्रस्ताव थे, जैसे एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति को अपने ट्रांसजेंडर होने का सर्टिफ़िकेट लेना होता। ये सर्टिफ़िकेट उन्हें एक स्क्रीनिंग कमिटी से मिलता जिसमें पाँच सदस्य होते। वे एक व्यक्ति के शरीर की जांच पड़ताल करके ये तय करते कि अमुक व्यक्ति ट्रांसजेंडर है या नहीं। बेहद विरोध के बाद बिल में कुल 27 बदलाव किए गए।

इसे “बिल ऑफ राइट्स” कहा है लेकिन ट्रांसजेंडर एक्टिविस्ट मीरा संघमित्रा के अनुसार ये “बिल ऑफ रॉन्ग्स” है।

लेकिन तब भी इसकी अमानवीयता कम नहीं हुई। अब पाँच लोगों की स्क्रीनिंग कमिटी की बजाय डीएम से सर्टिफ़िकेट लेना होगा। वो तय करेंगे कि अमुक व्यक्ति ट्रांसजेंडर हैं या नहीं। डीएम साहब की जो मर्ज़ी होगी वो फैसला हमें मानना होगा क्योंकि बिल इस बारे में खामोश है कि अगर हमें डीएम से शिकायत हो तो हम कहाँ जायें। इसके अलावा यदि किसी ट्रांसजेंडर व्यक्ति के साथ किसी भी तरह का हिंसा या भेदभाव होता है तो अपराधी को 6 महीने से 2 साल की सज़ा मिलेगी, इसमें यौन हिंसा और हत्या भी शामिल है। सोचिए कि एक समुदाय की ज़िंदगी की कितनी कम कीमत लगाई है इस संसद ने। यही संसद जिसमें जया बच्चन एक महिला के यौन हिंसकों को लिंच करने की बात करती हैं। यहाँ पर ये ना समझा जाए कि हम मृत्युदंड या कठोर सज़ा के सहयोगी है, लेकिन कानूनी तौर पर ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के साथ हिंसा करने वाले लोगों को सिसजेंडर (ट्रांसजेंडर का विलोम समझा जा सकता है। ऐसे लोग जो जन्म के समय निर्धारित जेंडर से ही खुद को पहचानते हों। जैसे जन्म के समय मेरा जेंडर ‘मेल’ था और मैं अपने आप को ‘मेल’ के तौर पर पहचानता हूँ, तो मैं सिसजेंडर हूँ, अगर ‘फ़ीमेल’ के तौर पर पहचानता तो ट्रांसजेंडर होता।) लोगों के साथ हिंसा करने वाले लोगों से कम सज़ा देकर क्या साबित करना चाहते हैं? कि ट्रांसजेंडर समुदाय की जान का कोई मूल्य नहीं है?

अब पाँच लोगों की स्क्रीनिंग कमिटी की बजाय डीएम से सर्टिफ़िकेट लेना होगा। वो तय करेंगे कि अमुक व्यक्ति ट्रांसजेंडर हैं या नहीं।

इसके अलावा शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य का कोई विधान नहीं है। ये बिल इंडिजिनियस ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों के घरानों को अवैध करार देता है, जो इस समुदाय का घर-परिवार है। उन्हें अवैध बता ये बिल ट्रांसजेंडर समुदाय को घर में हिंसा होने पर “रिहैबिलिटेशन सेंटर” में भेजने की बात करता है। हम इस देश के इन केंद्रों की स्थिति से परिचित हैं। इसके अलावा लड़का-लड़की के खांचें में बंटे ये केंद्र ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के प्रति कितने संवेदनशील होंगे? उन्हें किस हिस्से में रखा जाएगा? बिल इन सब बातों पर चुप है।

ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के साथ हिंसा करने वाले लोगों को सिसजेंडर लोगों के साथ हिंसा करने वाले लोगों से कम सज़ा देकर क्या साबित करना चाहते हैं? कि ट्रांसजेंडर समुदाय की जान का कोई मूल्य नहीं है?

विडम्बना है कि संविधान दिवस के दिन ये बिल राज्य सभा में पास हुआ। लोक सभा में ये 5 अगस्त को कश्मीर की बहस के बीच चुपके से पास कर दिया गया। बाबा साहेब के दिए हुए अधिकारों को छिनने का यह बिल ट्रांसजेंडर समुदाय और क्वीयर समुदाय को अस्वीकार है। एक्टिविस्ट राष्ट्रपति से बिल ना साइन करने की माँग करते हुए वेबसाइट पर कम्पलेन कर रहे हैं और पोस्टकार्ड भी भेज रहे हैं। समुदाय लोकतंत्र के दरवाज़े पर बाबा साहेब का संविधान लिए खड़ा है, और संसद से उम्मीद खो चुकने के बाद भी हारने को तैयार नहीं है।

एक ज़रूरी बात और की हर समुदाय की तरह ट्रांसजेंडर समुदाय में भी हर राजनीतिक विचारधारा के लोग हैं, और कुछ लोग इस बिल का या तो स्वागत कर रहे हैं या अपने राजनीतिक लाभ के लिए चुप हैं। यदि आप विमर्श करें तो ऐसे लोगों को बुलाने से बचें, वे मानवाधिकारों को धत्ता बताएँगे और पितृसत्ता का परचम लिए होंगे।

अपना खयाल रखिए। हम सब आपसे बेहद प्रेम करते हैं।

धर्मेश