कविता : एक मुलाकात

मिला मैं तुमसे उस रात जब मिलने का इरादा न था। 
और खड़े थे उस कोने में तुम जहाँ से नज़र हटाना न था। 

तुम तुम्हारी ज़िंदगी लिए और मैं अपने किस्से लिए मिल तो लिए पर वापस न आ सके।
फिर एक नई कहानी की शुरुआत हुई – तुम, मैं, और हमारे वो डेढ़ महीने।

एक ऐसी कहानी जो शुरू ही ख़त्म होने के लिए हुई थी। 
एक-एक कर कदम बढ़ने लगे और न जाने कब शहर के सिरे बदल गए। 

इस बीच की गुफ्तगू में तुमने बताना और मैंने सुनना पसंद किया,
तुम बोलते-बोलते कब अपने खट्टे मीठे पलों में चले गए ये शायद तुम्हें भी पता नहीं चला। 
मैं तुमसे ठीक एक कदम पीछे उन्हीं खट्टे मीठे पलों को अपने नज़रिये से जीता चला गया। 

सुबह के चार बज गए थे और मैं तुम्हें चार घंटे और सुनने को मान गया था।
हालाँकि मेरा अतीत चीखता बिलखता मना कर रहा था, पर आज की सुबह शायद ये दर्द कुछ काम करने आयी थी।

अपने डर से ज़्यादा मेरे मन ने आज तुम्हारी सुननी चाही थी। 
क्या गजब की नींद आयी थी, तुम्हारी बातों की आवाज़ और तुम्हारी साँसों की गर्माहट के बीच मेरे मन में बैठी बच्ची कई हफ़्तों बाद सो पायी थी। 

अक्सर रात गयी बात गयी जैसा कुछ हुआ नहीं और हमारी बातों का सिलसिला कुछ रुका नहीं। 
डेढ़ महीना कैसे बीतता गया कुछ पता ही नहीं चला, हमारे बहाने चुपचाप सहता चला गया। 

आखिर हम फिर एक बार मिले, सारे गीले शिकवे मिनटों में ही दूर कर बैठे। 
तुम्हारा वो मुस्कुरा कर गलती मान लेना और मेरा बिना कुछ बोले मान लेना मुनासिब भी था। 

खैर रात भी हमारी आखिरी थी और गीले शिकवे लिए सो जाना मेरी आदत नहीं थी। 
फिर एक बार वो शाम आयी जब तुम्हारी बातों और मेरी हँसी के बीच एक प्यारी सी बच्ची सो पायी। 

एक साल नया था, मेरे लिए देश नया, शहर नया था, लोग नए थे, काम नया था।
हमारे लिए एक दौर नया था।
समय टिक-टिक कर बीतता गया, वादे टूटते गए पर रिश्ते खड़े रहे। 

महीनों बाद तुमसे तुम्हारी तकल्लुफ पूछी तो फिर एक बार सारी यादें ताज़ा हुईं। 
बिज़ी-बिज़ी के खेल में तुमने तुम्हारा वक्त निकालना सिख लिया और मैंने उस गुस्ताखी को माफ़ करना। 

एक नया मूड था, आज से कुछ साल आगे की बातें चलनी चालू हुईं। 
फिर एक बार तुमने तुम्हारे सपने बताये और फिर एक बार मैं अपनी ख्वाहिशें दबाने में कामयाब हो बैठा। 

ये गलती मैंने हमेशा से की है, अपनी बातें अपने तक ही सिमित की हैं।
मेरे सपने मेरी ख़्वाहिशें, उसके सपने में ही जी हैं। 

जब आँख खुलती है तो दो सपने टूटते हैं, उसके और मेरे उसके साथ होने के। 
पर अबकी बार ये गलती ना करने की ठानी, मिलेंगे जब हम हर कहानी मुंहजुबानी बतलानी। 

फिर वो शाम आयी, इस बार ज़बान मेरी और कान उसके थे, हर वो चीज़ जो मैं ज़िंदगी से चाहता था, मैंने उससे बताया था। 
आज तुम फिर मुस्कुराये, हमारी बेहाली दर्द देती तो भी कैसे। 

तुम्हारे मुस्कुराते चेहरे को देख मैं भी ये गम पी गया। 
और हमारी कहानी का अंत का ये धागा, ज़िंदगी की सुई में पिरो गया। 

हम फिर एक कहानी सियेंगे, तुम तुम्हारी और मैं अपनी, पर जब भी पीछे मुड़ेंगे,
इस नयी कहानी के एक सूत तुमसे आती होगी जो मुझे मैं बनती होगी।

प्रतीक (Pratik)
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