कहानी : वजूद

क्या राजपूत होना गुनाह है? अगर राजपूत हो तो क्या आपको “मर्द” होना ही होगा? इस से कम कुछ मंज़ूर नहीं? कुछ भी नहीं!! दुनिया के लिए वही सच है, जो उनकी आँख देखती है और उनकी आँखों को दिखाने के लिए मेरा “मर्द” होना बहुत ज़रूरी था। वरना अंगुली न केवल मेरे राजपूत होने पर उठती, बल्कि पूरी बिरादरी में मेरे घर का कोई “मर्द” अपनी मूँछों को ताव न दे पाता। तय किया, कैसे भी करके उदयपुर छोड़ दूँ… वरना एक न एक दिन घरवाले मेरी हकीक़त जान जायेंगे और मैं उनके लिए एक “दाग” हो जाऊंगा!!!

कहाँ से शुरू करूँ, समझ नहीं आ रहा। जब पहली बार पता चला था कि मैं “अलग” हूँ- वहाँ से या फिर वहाँ से जब स्कूल में एक दोस्त से पहले प्यार का अहसास मिला था… वहाँ से, जब पहली बार एक कजिन ने मेरा रेप किया या फिर वहाँ से जब मेरा भाई बोल पड़ा… अब तो मर्द बन जा, कब तक ऐसे ही माँ के दूध को लजाता रहेगा? दुनिया के लिए भले ही दरवाज़े खुल रहे होंगे पर मेरे लिए जब एक एक करके सारे दरवाज़े बंद हो रहे थे, तो इन अँधेरी संकड़ी राहों- गलियारों में अपने वजूद को खोजता मैं… कहाँ से शुरू करूँ, समझ नहीं पा रहा।

मैं नहीं जानता, क्या गलत है और क्या सही? प्यार करना कभी गलत हो सकता है? ये तो ईश्वर की देन है और ईश्वर की बनाई कोई चीज़ कभी गलत नहीं होती, ये दादी सा’ बचपन से सिखाती आ रही थी। कब-किसका- किससे- कहाँ स्नेहसूत्र जुड़ जाए, कोई पता नहीं… सब मन के रिश्ते हैं, लेकिन इन्हें कौन समझेगा? मैं कहने को लड़का ज़रूर पैदा हुआ था, पर मुझे मेरे मन के अनुरूप किसी लड़के से प्यार करना मना था। वह गुनाह था और गुनाह की राजपूतों में दो ही सज़ा होती है – या तो मार डाले जाओगे या हमेशा के लिए घर में कैद कर लिए जाओगे।

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वो स्कूल के दिन थे। एक दोस्त से मुलाकात- प्यार क्या हुआ, पूरे स्कूल में मेरे वजूद पर कालिख मल दी गयी। तब नौवी में था। स्कूल के बाथरूम में एक लड़के के साथ पकड़े जाने की सज़ा थी कि मुझे फुटबॉल टीम से निकाल दिया गया। कारण जानने जब कोच के पास गया तो वे जिस तरह की हँसी हँसे, वो कभी नहीं भूल सकता। घर पर क्या बोलूँ? कैसे बोलूँ कि मुझे अब यह स्कूल क्यों बदलना है? तो मतलब ये हुआ कि अब बारहवीं तक मुझे इस जलालत को सहना पड़ेगा। खूब रोता था घर आकर, पर किसी से कह नहीं पाता था। मेरा कोई दोस्त नहीं था, कोई मेरे पास नहीं आना चाहता था। न लड़के और न ही लड़कियाँ। कलेंडर और साल यूँ ही बदल रहे थे पर स्कूल का बाथरूम वाला किस्सा जैसे मेरे ललाट पर लिख दिया गया था।

वो बारहवीं का साल था। मेरी मौसी का लड़का मुझसे मिलने आया। वो दूसरे स्कूल में पढ़ता था पर हम दोनों विज्ञान के ही छात्र थे। बोला, साथ रहकर पढेंगे तो दोनों एक दूसरे की मदद कर पायेंगे और इस से शायद बोर्ड के रिज़ल्ट अच्छे आये। मैं तैयार हो गया। भाई जैसा था तो कोई ख़ौफ़ नहीं था। पहली ही रात उसने मुझसे ज़बरदस्ती करनी चाही। मैंने मना किया तो बोला, अपने स्कूल के लड़कों के साथ सो सकता है तो मेरे साथ सोने में क्या दिक्कत है। मैं भौंचक्का था। मैंने दूर हटना चाहा, उसने मेरे मुँह को बंद कर दिया। उस रात सिर्फ मेरे जिस्म को नहीं नोचा गया, बल्कि आत्मा भी लहुलुहान की गयी थी। गे होने का यह मतलब नहीं कि कोई भी कभी भी मेरे साथ कुछ भी कर सकता है। क्या मेरी चॉइस या मेरी रज़ामंदी की कोई अहमियत नहीं? उस बलात्कार के बाद हिम्मत नहीं थी कि कोई शिकायत भी कर सकूँ। उलटे मुझे धमकी दी गयी थी कि अगर मुँह खोला तो सारे पुराने किस्से घर वालों तक पहुँच जायेंगे। फिर वो कजिन हर रात मेरी आत्मा को नोचता रहा। हर बार और ज़्यादा बर्बर तरीके से। उसे अपनी मर्दानगी दिखाने के लिए मेरा ही जिस्म मिला था।

परीक्षाओं के बाद घर पर रिक्वेस्ट की कि इंजीनियरिंग के लिए किसी “अच्छे” कॉलेज में दाख़िला करवा दिया जाए। मैं बस उदयपुर से भाग जाना चाहता था। मेरा दाखिला मुंबई के एक नामी कॉलेज में करवा दिया गया। दिल में खुद को कसम दी कि अब वापस कभी लौट कर नहीं आऊंगा। वो स्कूल के दिन, वो घर पर परीक्षाओं की रातें… मैं इन्हें कभी याद नहीं रखना चाहता था।

गे होने का यह मतलब नहीं कि कोई भी कभी भी मेरे साथ कुछ भी कर सकता है। क्या मेरी चॉइस या मेरी रज़ामंदी की कोई अहमियत नहीं?

मुंबई का लाख लाख शुक्रिया, जिसने मुझे ठीक वैसे स्वीकार किया, जैसा मैं था। दूसरे ही साल में मेरी यौनिकता (सेक्सुअलिटी) को लोग जान चुके थे। मैं अक्सर मेरे बॉयफ्रेंड के साथ घूमता रहता था तो लोगों ने सहज अंदाज़ा लगा लिया था, पर कभी भी किसी ने ऑब्जेक्शन नहीं किया। कॉलेज के दरम्यान मेघालय के रिन्गजो से मुलाकात हुई, जो कब प्यार में बदल गयी पता ही नहीं चला। प्यार के मायने समझ पा रहा था। उसका स्पर्श बहुत अच्छा लगता था। रिन्गजो की सांसें भी मेरे अंतर्मन को छूती थी और उन घावों को भरने का काम करती थी, जो अतीत ने दिए थे।

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तस्वीर सौजन्य : देवेश खटू / क्यूग्राफ़ी

रिन्गजो की कहानी मुझ से थोड़ी थोड़ी अलग थी। उसे उसकी बहन का बहुत अच्छा साथ मिला था। वह अक्सर बताया करता था की उसकी जनजाति में पितृसत्ता नहीं होती। मायने ये कि वहाँ वही होता है, जो औरतें चाहती है। इस सूरत में बहन का उसे समझना एक बड़ी बात थी। हाँ, उसके साथ भी बचपन में ट्यूशन टीचर ने ज़्यादती की थी। पर तब उसने घबराने की बजाय अपनी बहन को बता दिया था, जिसका नतीजा ये हुआ कि उस ट्यूशन टीचर को उसका गाँव छोड़ना पड़ा था। शुरूआती विरोध के बाद रिन्गजो को भी परिवार में अपना लिया गया।

मैं अक्सर सोचा करता हूँ कि आम हिन्दुस्तानी जिस नार्थ ईस्ट के सभी आठ (सिक्किम सहित) राज्यों के नाम तक नहीं जानते, वहाँ की परम्पराएं उत्तर भारत से कितनी समृद्ध है। जिन्हें हम “आदिवासी” कहते हैं, वे हम सभ्यों से कितना अच्छे हैं! वहां पितृ सत्ता ही नहीं। मतलब मर्दवाद ही नहीं। मतलब मूँछ का ताव ख़त्म। मतलब कि अकड ही ख़त्म। वाह !! सोचकर ही रोमांचित हो जाता हूँ।

रिन्गजो के साथ दिन खुशनुमा बीत रहे थे कि एक दिन अचानक भाई मुंबई आ गया। वह मुझे सरप्राइज़ देना चाहता था पर उसे क्या पता था कि असल सरप्राइज़ उसे मिलने वाला है। सुबह सुबह अचानक से मेरे रूम पर पहुँचा और ताला पाकर मुझे फोन करने लगा। नींद में होने के कारण जब मैंने फोन नहीं उठाया तो हॉस्टल के दूसरे लड़कों से मेरे बारे में पूछताछ हुई। पड़ोस में रहने वाले एक लड़के ने ऐसे ही मज़ाक में बोल दिया कि और कहाँ होगा, वहीँ होगा उस “चिंकी” के रूम पर। भाई खुश हुआ कि मेरी कोई गर्ल फ्रेंड “चिंकी” है। पर जब पता चला कि उस चिंकी का कमरा भी उसी हॉस्टल में है तो थोड़ा असहज होते हुए उसने रिन्गजो का कमरा खटखटा ही दिया।

उस सुबह भाई को पता चल गया कि मेरी रूचि लड़कों में है। जितनी गालियाँ वो एक साँस में मुझे दे सकता था, उसने दी। हॉस्टल में अच्छा ख़ासा तमाशा करने के बाद वह उसी समय वहाँ से चला गया। मेरा मन किसी अनहोनी के डर से काँप रहा था। क्या उसने घर जाकर सबको बता दिया होगा? क्या मुझे अपनी पढ़ाई जारी रखने की इजाज़त मिलेगी? क्या मैं अब और रिन्गजो के साथ रह पाउँगा? क्या वे रिन्गजो के साथ कुछ गलत तो नहीं कर देंगे। तमाम आशंकाओं से घिरा मैं बुरी तरह घबरा गया था। रिन्गजो मुझे सांत्वना दे रहा था कि जो होगा देखा जाएगा और हर स्थिति में वो मेरे साथ होगा।

डेढ़-दो हफ्ते बाद पापा का फोन आया कि उन्होंने मेरे लिए एक लड़की पसंद कर ली है। पापा के सामने हाँ या ना करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। बचपन से ही हमें इस तरह बड़ा किया गया था कि पापा या बड़े भाई के सामने नज़रें नीची करके खड़े रहो और उनके हर एक शब्द को आदेश मान कर स्वीकार करो। हिम्मत करके मैंने कहा कि अभी तो मेरा ग्रेजुएशन ही पूरा नहीं हुआ है। वे कुछ नहीं बोले और फोन काट दिया गया. मेरे पास कोई चारा नहीं था। रिन्गजो भी कुछ समझ नहीं पा रहा था। और कोई सपोर्ट सिस्टम तो था नहीं कि जिस से बात की जा सके। भागने का सवाल नहीं था क्योकि अभी पढ़ाई का पूरा एक साल बाकि था। एक तरफ कुआँ और एक तरफ खाई वाली बात थी। आखिरकार तय किया कि मुझे घर पर किसी एक को मेरी यौनिकता के बारे में बता देना चाहिए। पर किस को? यह यक्ष प्रश्न सामने खडा था। मेरी केवल माँ से बनती थी और माँ का दर्जा मेरे घर में घूँघट में चुपचाप घर के काम करने जितना ही था। पापा के सामने मैंने कभी उनको सिर ऊँचा करके बोलते तक नहीं देखा था। क्या उनको बोलना ठीक रहेगा? ये भी संभव है कि सबको पता चल गया हो!! क्या करू? उस रात बिलकुल नींद नहीं आई।

मेरी शादी कर दी गयी। आप सोच रहे होंगे, मैं तो बहुत डरपोक निकला। रिन्गजो को धोखा दे दिया। अपने आप को धोखा दे दिया! शायद उस लड़की के साथ भी गलत किया, जिसे शायद मैं अपना 100% कभी दे भी नहीं पाऊंगा! तो जवाब है, हाँ उस स्थिति, उन हालात में मैं डरपोक निकला। बहुत ही डरपोक। पर शायद डरपोक होने से ज्यादा मैं खुदगर्ज़ था।

शादी के बाद वापस मुंबई लौट आया। “गौना” होने में अभी वक़्त था। वो भी कुछ दिन उदयपुर बिताकर अपने पीहर लौट गयी। उसकी पढ़ाई भी चल रही थी। रिन्गजो अब भी मेरे साथ था पर रिश्ते की गर्माहट ख़त्म हो चुकी थी। उसी ने मुझे शादी कर लेने की राय दी थी। उसके अनुसार तत्काल समय में इस से बेहतर कुछ नहीं था।

हाँ उस स्थिति, उन हालात में मैं डरपोक निकला। बहुत ही डरपोक। पर शायद डरपोक होने से ज्यादा मैं खुदगर्ज़ था।

इंजीनियरिंग पूरी हुई और मैंने मास्टर्स के लिए देश के बाहर अप्लाई करना शुरू कर दिया। घरवाले, यहाँ तक कि बीवी को भी इस बारे में नहीं बताया। किस्मत अच्छी रही कि स्कोलरशिप भी मिल गयी और फ़िनलैंड की राजधानी हेलसिंकी के एक कॉलेज में दाखिला भी मिल गया। घर वालों को पता चला तो उन्होंने मना कर दिया। वे चाहते थे कि अगर बाहर जाना ही चाहता हूँ तो बीवी को भी साथ ले जाऊँ। अब उन्हें कैसे समझाता कि मैं यहाँ से भाग जाना चाहता था। ठीक वैसे ही जैसे उदयपुर से भागकर मुंबई आया था। फिर से… खुद से.. हर एक रिश्ते से… बस भाग जाना चाहता था। सारे लोग पीछे छूते जा रहे थे। रिन्गजो भी… बीवी भी… मम्मी पापा भी… मुंबई एअरपोर्ट पर खड़े खड़े खुद को कसम दे रहा था कि बस अब कभी लौटकर इंडिया नहीं आऊंगा।

“अगर कोई अपने सुख को ज्यादा पसंद करता है तो इसमें उसे शर्म महसूस नहीं करनी चाहिए”- अल्बैर कामू के उपन्यास “प्लेग” की ये पंक्तियाँ मेरे सामने आन खड़ी हुई थी।

आज यूरोप के अलग अलग देशों में रहते हुए मुझे 12 साल हो गए हैं। मुझे इंडिया गए भी इतने ही साल हो गए हैं। पिछले दिनों इंडिया में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर रोमांचित हुआ। मुझे पता है कि राजपूत या किसी और समाज में इस फैसले से बहुत कुछ बदलने नहीं वाला, पर हाँ, हमारे वजूद को देश की सबसे बड़ी संस्था ने स्वीकार किया, ये एक बड़ी जीत थी। सफ़र बहुत लम्बा है और एक मील का पत्थर इंडिया पार कर चुका। ख़ुशी इस बात की भी है कि अब अगर कोई इन्सान किसी और समान सेक्स वाले के साथ कुछ गलत करता है तो कम से कम कानून ज़रूर उसका साथ देगा। उसे घबराने की ज़रूरत नहीं होगी। वो स्कूली एग्जाम के साथ ज़िन्दगी के कटु-एग्जाम नहीं देगा।

मेरी शादी ख़त्म हो चुकी। वे लोग ज़्यादा इंतज़ार नहीं कर सकते थे और अपनी लड़की की शादी किसी और के साथ करने को मजबूर हो गए थे। पापा ने धमकी दी थी कि अगर मैं वापस उदयपुर आया तो वे मुझे तलवार से काट देंगे। हालाँकि उन्हें अभी भी मेरी यौनिकता के बारे में पता था, ये संदेह था। भाई ज़रूर एक बार फोन पर बोल चुका था कि “अब तो मर्द बन जा, कब तक माँ के दूध को लजाता रहेगा”। माँ कभी कभी हाल चाल पूछ लेती थी। वो इस बात से खुश थी कि मुझे अच्छी नौकरी मिल गयी है और मैं अब “बड़ा” हो गया हूँ। वो अक्सर फोन पर रोती रहती थी। मैं उन्हें कभी चुप नहीं करवा पाया। मैं जानता हूँ कि मैंने माँ के दूध को नहीं लजाया। मैं अब भी उनका प्यारा बेटा हूँ। सबसे छोटा-सबसे लाड़ला।

अभी हीथ्रो एअरपोर्ट पर हूँ और कुछ देर में मेरी दिल्ली की फ्लाइट हैं. 12 साल बाद अपने देश जा रहा हूँ. उस देश, जहाँ कभी भी लौट कर नहीं जाने की कसम खाई थी. फाइनल एनाउन्समेंट हो चुकी है. मेरे कदम फ्लाइट की तरफ बढ़ रहे हैं. मैं रोमांचित हूँ. रिन्गजो ने बुलाया है. वो किसी लड़के के साथ लम्बे समय से रिलेशनशिप में है और अपनी इस रिलेशनशिप की सालगिरह को दोस्तों के साथ मनाना चाहता है. उसके निमंत्रण को टाल नहीं पाया. इस निमंत्रण ने मुझे मेरी ही कसम तोड़ने को मजबूर कर दिया है. मैं इंडिया जा रहा हूँ. प्यार की ये कौनसी सात्विकता है जो बार बार आप उस से मिलना चाहते हैं, जिसे आप प्यार करते हैं. मुझे नहीं पता कि मेरी किस्मत में क्या लिखा है पर रिन्गजो के बारे में जब से पता चला है, बहुत खुश हूँ. दिल के एक कोने में रिन्गजो की यादे सहेजे हुए हूँ. हर बार, हर जगह हारा… बस कहीं एक बार अपनापन मिला तो वह रिन्गजो के साथ ही मिला. जब रिन्गजो से बिछुड़ रहा था तो उसने कहा था, “तुम ही कहा करते हो ना ! सब उस ऊपर वाले की इच्छा से होता है. उसी ने हमें मिलाया. जितने दिन साथ रहे, अच्छा था. अब उसकी मर्ज़ी से ही शायद हम अलग हो रहे हैं. अबकी बार खुद को संभाल लेना.”

मैं अपनी कुर्सी की पेटी बाँध चुका हूँ. विमान रनवे पर है. आशाएं सरपट भागी जा रही है. बुरे सपने पीछे छूटे जा रहे हैं. उम्मीद को आकाश मिलने वाला है. मेरे अरमानों के पंख फैलते जा रहे हैं. मैं अन्दर ही अन्दर मुस्कुराता हुआ अचानक से हंस पड़ता हूँ. मेरे पड़ोस में बैठी एक नन्ही सी बच्ची भी साथ में खिलखिला पड़ती है.

आर्य मनु (Arya Manu)